Thursday, January 6, 2011

muktakantha, kamta seva kendra

मुक्तकंठ ही क्यों
अनामी शरण बबल
आखिरकार इस पत्रिका मुक्तकंठ में ऐसा क्या है कि इसके बंद होने के २७ सालों के बाद इसी पत्रिका को फिर से शुरू करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। यह बात सही है, कि इसे ही क्यों आरंभ करें। मुक्तकंठ को करीब १७-१८ साल तक लगातार निकालने के बाद बिहार के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और राजनीति में समान रूप से सक्रिय शंकरदयाल सिंह ने इसे १९८४ में बंद कर दिया था। बंद करने के बाद भी शंकर दयाल सिंह के मन में मुक्तकंठ को लेकर हमेशा एक टीस बनी रही, जिसे वे अक्सर व्यक्त भी करते थे। मुक्तकंठ उनके लिए अभिवयकित का साधन और साहित्य की साधना की तरह था, जिसे वे एक योगी की तरह सहेज कर ऱखते थे। मुक्तकंठ और शंकरदयाल सिंह एक दूसरे के पूरक थे।
बिहार में मुक्तकंठ और शंकर दयाल की एक ही पहचान मानी जाती थी। इसी मुक्तकंठ को १९८४ में बंद करते समय उनकी आंखे छलछला उठी और इसे वे पूरी जवानी में अकाल मौत होने दिया।
एक पत्रिका को शुरू करने को लेकर मेरे मन में मुक्तकंठ को लेकत कई तरह के सवाल मेरे मन में उठे, कि इसे ही क्यों शुरू किया जाए। सहसा मुझे लगा कि सालों से बंद पड़ी इस पत्रिका को शुरू करना भर नहीं है, बलिक उस सपने को फिर से देखने की एक पहल भी है, जिसे शंकर दयाल जी ने कभी देखा था।
देव औरंगाबाद (बिहार) की भूमि पर साहित्य के दो अनमोल धरोहर पैदा हुए। कामता प्रसाद सिंह काम और उनके पुत्र शंकर दयाल सिंह ही वो अनमोल धरोहर हैं, िजनकी गूंज दोनों की देहलीला समाप्त होने के बाद भी आज तक गूंज रही है। सूय() नगरी के रूप में बिख्यात देव की धामिक छवि को चार चांद लगाने वालों में पिता-पुत्र की जोड़ी से ही देव की कीति बढ़ती रही। देव में साहित्यकारों और नेताअो की फौज को हमेशा लाते रहे। देव उनके दिल में बसा था और देव की हर धड़कन में शंकर दयाल की की उन्मुक्त ठहाकों की ठसक भरी याद आज तक कायम है। शंकर दयाल  जी के पिता कामता बाबू से पहले देव के राजा रहे राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह ने भी अपने शासन काल के दौरान नाटक, अभिनय और मूक सिनेमा बनाकर अपनी काबिलयत और साहित्य, संगीत,के प्रति अपनी निष्ठा और लगन को जगजाहिर किया था। इसी देव भूमि के इन तीन महानुभावों ने साहित्य, संगीत के बिरवे को रोपा था, जिसे शंकर दयाल जी के पुत्र रंजन कुमार सिंह और आगे ले जाते हुए फोटोग्राफी और फिल्म बनाने के साथ     अंग्रेजी लेखन से इसी परम्परा को अधिक समृद्ध बनाया है।
मुक्तकंठ से आज भी बिहार के लोगों को  तीन दशक पहले की यादे ताजी हो जाती है। अपने गांव और अपने लोगों की इस धरोहर या विरासत को बचाने की इच्छा और ललक के चलते ही ऐसा लगा मानो मुक्तकंठ से बेहतर कोई और नाम हो ही नहीं सकता। सौभाग्यवश यह नाम भी मुझे िमल गया। तब सचमुच ऐसा लगा मानों देव की एक िवरासत को िफलहाल बचाने में मैं सफल हो गया। इस नाम को लेकर जिस उदारता के साथ शंकर      दयाल जी के पुत्र रंजन कुमार सिंह ने अपनी सहमति दी वह भी मुझे अभिभूत कर गया। एक साप्ताहिक के तौर पर मुक्तकंठ को आरंभ करने के साथ ही ऐसा लग रहा है मानों देव की उस विरासत को फिर से जीवित करने की पहल की जा रही है, जिसका वे हमेशा सपना देखा करते थे। हालांकि मुक्तकंठ के नाम पर जमापूंजी तो कुछ भी नहां है, मगर हौसला जरूर है कि अपने घर आंगन और गांव के इन लोगों की यादों को स्थायी तौर पर कायम रखने की चेष्टा क्यों ना की जाए। मैं इसमें कितना कामयाब होता हूं, यह तो मैं नहीं जानता, मगर जब अपने घर की धरोहरों को कायम रखना है तो चाहे पत्र पत्रिका हो या इंटरनेट वेब हो या ब्लाग हो, मगर देव की खुश्बू को चारो तरफ फैलाना ही है। इन तमाम संभावनाअों के साथ ही मुक्तकंठ को २७ साल के बाद फिर से शुरू किया जा रहा है कि इसी बहाने फिर से नयी पीढ़ी को पुराने जमाने की याद दिलायी जाए, जिसपर वे गौरव से यह कह सके कि वे लोग देव के ही है।त्

पुष्पेश पंत, कूटनीतिक विश्लेषक
वर्ष २०१० कई मायनों में महत्वपूर्ण समझा जा सकता है- अमरीका, भारत, रूस, फ़्रांस सबकी विदेश नीति में काफ़ी बदलाव हुए। अब सवाल ये है कि २०११ में दुनिया का हाल क्या होगा? देश-विदेश में होने वाली हलचल हमें किस तरह से प्रभावित करेगी?
अफगानिस्तान
सबसे पहली बात जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए वो ये है कि भले ही अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी फ़ौज की वापसी का जितना भी शोर मचता रहे, ये रणक्षेत्र विस्फोटक बना रहेगा। अफ़ग़ानिस्तान में पश्चिमी नमूने के जनतंत्र को जबरन थोपने या राजनीतिक-सैनिक शल्यचिकित्सा द्वारा कृत्रिम रूप से प्रत्यारोपित करने के सभी प्रयास नाकाम रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान की भूगौलिक स्थिति ऐसी है कि यहाँ का घटनाक्रम ईरान और इराक़ को प्रभावित करता है और उनसे प्रभावित होता है। कुल मिलाकर संकट का ये चंद्र राहुकाल में फँसा रहेगा।
भले ही अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी फ़ौज की वापसी का जितना भी शोर मचता रहे, ये रणक्षेत्र विस्फोटक बना रहेगा। अफ़ग़ानिस्तान ख़ूंखार कबायली अतीत और जोख़िम भरे भविष्य के बीच एक ऐसे वर्तमान में जी रहा है जहाँ अराजकता फैली है। अब झक मारकर अमरीका को ताथकथित च्अच्छे तालिबानज् के साथ संवाद की पेशकश के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस बात को बार-बार रेखांकित करने से भी कुछ हासिल नहीं होने वाला कि कट्टरपंथी तालिबानरूपी इस जानलेवा नासूर को अमरीका ने ख़ुद पैदा किया है।
हक़ीक़त ये है कि आज अफ़ग़ानिस्तान ख़ूंखार कबायली अतीत और जोख़िम भरे भविष्य के बीच एक ऐसे वर्तमान में जी रहा है जहाँ अराजकता फैली है। अफ़ीम की तस्करी हो या हिंसक कट्टरपंथ का निर्यात- अफ़ग़ानिस्तान एक जटिल अंतरराष्ट्रीय संकट का केंद्र है। एक ओर इसके तार पाकिस्तानी फ़ौज से जुड़े हैं तो दूसरी ओर सामंतशाही सऊदी अरब से।

चीन- कभी नरम कभी गरम
विश्व पटल पर भारत-अमरीका के बढ़ते सहयोग के बीच चीन को टटोलना ज़रूरी है. चीन आज दुनियाभर की हलचल की दिशा तय करने वाली महाशक्ति है। भारत समेत अन्य देशों के साथ चीन का रवैया कभी नरम तो कभी गरम चलता रहेगा। उत्तर कोरिया को वो उसी तरह शह देकर इस्तेमाल करता रहेगा जैसे वो पाकिस्तान को करता है।
रूस को लगता है कि अमरीकी शिकंजे में कसा उसका विश्वासपात्र भारत कहीं चीन के निकट तो नहीं जा रहा। वहीं कुछ लोग इस बात से चिंतित हैं कि चीन का उपयोग अमरीका के वज़न को संतुलित करने के लिए किया जा सकता है। लेकिन २०११ में चीन वही करता रहेगा जो उसने २०१० में किया और कोई ख़ुशफ़हमी पैदा करने वाले नतीजे नहीं आएँग- यानी भारत समेत अन्य देशों के साथ चीन का रवैया कभी नरम तो कभी गरम चलता रहेगा।
उत्तर कोरिया को वो उसी तरह शह देकर इस्तेमाल करता रहेगा जैसे वो पाकिस्तान को करता है। इन दोनों ही देशों के संदर्भ में परमाणु अप्रसार और पडो़सी से तकरार की चुनौती जस की तस बनी रहेगी।
आक्रामक रुख़
चीन और विश्वसमुदाय का मत कई मुद्दों पर अलग रहा है। नेपाल के साथ-साथ दक्षिण एशिया में चीन अपना प्रभुत्व बढ़ाने की कोशिश के तहत श्रीलंका से गठजोड़ बढाएगा- कहीं प्रत्यक्ष रूप से कहीं अप्रत्यक्ष रूप से। अगर कोई देश चीन के इस मंसूबे को चुनौती देगा तो उसके प्रति चीन का रुख़ अप्रत्याशित रूप से आक्रामक हो सकता है। मानवाधिकारों का मुद्दा हो या पर्यावरण का, चीन के हित विश्वसमुदाय की आम सहमति से टकराते रहेंगे
बर्मा में तो उसने अपनी जड़ें काफ़ी मज़बूती से जमा ही ली हैं। कभी मज़बूत अर्थव्यवस्था वाले जापान की हालत आज ऐसी नहीं है कि वो दक्षिण कोरिया और ताइवान की मदद से चीन को उग्र आक्रामक तेवर अख़्तियार करने से रोक सके। २०११ में चीन न सिर्फ़ दक्षिण चीन सागर में दवाब बनाए रखेगा बल्कि अफ़्रीका से लेकर लातिन अमरीका में हर जगह संसाधनों पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए सक्रिय रहेगा।

कहीं अमरीका न डाले खलल
जहाँ तक अमरीका का सवाल है तो इस बात के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे कि आर्थिक मंदी और बढ़ती बेरोज़गारी की चपेट से उसे निकट भविष्य में पूरी तरह निजात मिल सकती है। इसका एक परिणाम तो ये होगा कि अमरीकी राष्ट्रपति और प्रशासन अंतरराष्ट्रीय मंच पर आसाधारण रूप से सक्रिय होकर कोई भी उपलब्धि हासिल करने के लिए उतावला रहेगा।
अतीत का अनुभव यही सिखाता है कि जब कभी ऐसी स्थिति पैदा होती है तो विश्व स्तर पर हालात अस्थिर होने लगते हैं। जाने कब अपने मतदाता का ध्यान भटकाने के लिए अमरीका कहीं हस्तक्षेप कर बैठे।
रूस में पुतिन बने भगवान
पुतिन अपने भरत यानी मेदवेदेव से पादुकाएँ वापस ले ख़ुद अपने पैरों में पहन दोबारा राज-काज संभालने की तैयारी कर सकते हैं। अब कोई संवैधानिक अड़चन आड़े नहीं आ सकती। भले ही चुनाव कुछ दूर हो पर च्सत्ता परिवर्तनज् की सुगबुगाहट के झटके यूरोप में दूर तक महसूस किए जा सकेंगे। चेचन्या, जॉर्जिया और यूक्रेन.. सभी की निगाहें रूस


मीडिया गांव से कितनी करीब मीडिया
गांव से कितनी करीब मीडिया !
 संजय कुमार
 संचार क्रांति के दौर में मीडिया ने भी लंबी छलांग लगायी है। मीडिया के माध्यमों में रेडियो, अखबार, टी.वी., खबरिया चैनल, अंतरजाल और मोबाइल सहित आये दिन विकसित हो रहे अन्य संचार तंत्र समाचारों को क्षण भर में एक जगह से कोसों दूर बैठे लोगों तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे
हैं। बात साफ है, बढते प्रतिस्पर्धा के दौर में मीडिया का दायरा व्यापक हुआ है। राष्ट्रीय अखबार राज्यस्तरीय और फिर जिलास्तरीय प्रकाशन पर उतर आये हैं। कुछ ऐसा ही हाल, राष्ट्रीय स्तर के टीवी चैनलों का भी है। चैनल भी राष्ट्रीय से राजकीय और फिर क्षेत्रीय स्तर पर आकर अपना परचम लहरा रहे हैं। मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक सभी ज्यादा-से-ज्यादा ग्राहकों / श्रोताओं तक अपनी पहुंच बनाना चाहते हैं। यकीनन आज बाजार, मीडिया पर हावी हो चुका है। अखबार और टीवी आपसी प्रतिस्पर्धा में आ गये हैं। मीडिया का स्वरूप आज बदल चुका है। राष्ट्रीय अवधारणा में तबदीली हो चुकी है। एक अखबार राष्ट्रीय राजधानी फिर राज्य की राजधानी और फिर जिलों से प्रकाशित हो रही है। इसके पीछे भले ही शुरूआती दौर में, समाचारों को जल्द से जल्द पाठकों तक ले जाने का मुद्दा रहा हो। लेकिन आज खबर पर, बाजार का मुद्दा हावी है। हर बड़ा अखबार समूह इसे देखते हुए अपने प्रकाशन के दायरे को बढ़ाने में लगा है। और आये दिन बड़े पत्र समूह छोटे-छोटे जिलों से समाचार पत्रों के प्रकाशन की घोषणा करते आ रहे है। एक अखबार दस राज्यों से भी ज्यादा प्रकाशित हो रहा है और उस राज्य के कई जिलों से भी प्रकाशन किया जा रहा है। साथ में दर्जनों संस्करण निकाले जा रहे हैं। दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक भाष्कर, दैनिक आज, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर जैसे कई समाचार पत्र हैं, जो कई राज्यों की राजधानी के अलावा राज्य के कई जिलों से कई संस्करण प्रकाशित कर रहे हैं। राष्ट्रीय अखबार क्षेत्रीय में तब्दील हो चुके हैं। जो नहीं हुए है वे भी प्रयास कर रहे हैं। पूरे मामलों में देखा जा रहा है कि एक ओर कुछ अखबार समूहों ने अपने प्रसार/प्रकाशन को बढ़ाया है तो वहीं कुछ समाचार पत्रों का दायरा सिमटा है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत की ज्यादा आबादी गांव में रहती है, फिर भी एक भी बड़ा अखबार समूह ग्रामीण क्षेत्रों को केन्द्र में रखकर प्रकाशन नहीं करता है। ग्रामीण क्षेत्र आज भी प्रिंट मीडिया से अछूते हैं। देश के कई गांवों में समाचार पत्र नहीं पहुंच पा रहे हैं। अंतिम कतार में खड़े व्यक्ति तक केवल आकाशवाणी की पहुंच बनी हुई है। भले ही प्रिंट मीडिया ने काफी तरक्की कर ली हो। संस्करण पर संस्करण प्रकाशित हो रहा हो। लेकिन, ये अखबार ग्रामीण जनता से कोसों दूर हैं। जो एक बड़ा सवाल है। देखा जाये तो जिले स्तर पर अखबरों के प्रकाशन के पीछे शहरी तबके को ही केन्द्र में रख कर प्रकाशन किया जा रहा है। अखबार की बिक्री ब्लॉक तक होती है। गांवों में अखबारों की पहुंच हो इस दिशा में शायद ही किसी मीडिया हाउस ने सार्थक प्रयास किया हो। सच तो यह है कि किसी एक गांव में समाचार पत्रों की प्रतियां १०० का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाती है। बिहार को ही ले, यहां ८४६३ पंचायत हैं और इस पंचायत के तहत लाखों गांव आते हैं। फिर भी अखबारों की पहुंच सभी पंचायतों तक नहीं है। नवादा जिले में १८७ पंचायत है। ब्लॉक की संख्या १४ है और गांव की संख्य १०९९ है। इनमें मात्र २०० गांवों में अखबार पहुंचने की बात कही जाती है। अखबारों का सर्कुलेशन प्रति गांव कम से कम १० और ज्यादा से ज्यादा ३० है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार के एक जिले के हजारों गांवों में मात्र २० प्रतिशत से भी कम गांव प्रिंट मीडिया के दायरे में हैं। समाचार पत्र समूह शहरों को केंद्र में रख कर खबरों का प्रकाशन करते हैं । क्योंकि, शहर एक बहुत बड़ा बाजार है और समाचार पत्रों में बाजार को देखते हुए शहर एवं ब्लॉक की खबरों को ही तरजीह दी जाती है। ब्लॉक स्तर पर अखबारों के लिए समाचार प्रेषित करने वाले पत्रकारों का मानना है कि ग्रामीण क्षेत्र में बाजार का अभाव है। यानी ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति सामने आती है। किसान फटे हाल हो और अनपढ़ हो तो, ऐसे में अखबार भला वह क्यों खरीदें ? हालांकि यह पूरी तरह से स्वीकार्य नहीं है क्योंकि अब गांवों में पढ़े लिखों की संख्या बढ़ी है। प्राथमिक विद्यालय सक्रिय है या फिर नौकरी पेशे से जुड़े लोग जब गांव जाते हैं तो उन्हें अखबार की तलब होती है। ऐसे में वे पास के ब्लॉक में आने वाले समाचार पत्र को मंगवाते हैं। कई सेवानिवृत्त लोग या फिर सामाजिक कार्यकत्ता चाहते है कि उनके गांव में समाचार पत्र आये। हालांकि इनकी संख्या काफी कम होती है फिर भी ऐसे कई गांव है जहां लोग अपनी पहल पर अखबार मंगवाते हैं। गांव से अछूते अखबारों के पीछे देखा जाये तो समाचार पत्र समूहों का रवैया भी एक कारण है। शहरों से छपने वाले समाचार पत्रों को गांव की खबरों से कोई लेना-देना नहीं रहता। अखबारों में गांव की खबरें नहीं के बराबर छपती है। जो भी खबर छपती है वह ब्लॉक में पदस्थापित प्रतिनिधियों से मिलती है वह भी ज्यदातर सरकारी मामलों पर केन्द्रीत रहती है। ब्लॉक का प्रतिनिधि ब्लॉक की खबरों को ही देने में दिलचस्पी रखता है ताकि ब्लॉक लेवल में अखबार बिक सकें। गांव की एकाध खबरें ही समाचार पत्रों को नसीब हो पाता है। जब तक कोई बड़ी घटना न घट जाए तब तक गांव की खबर अखबार की सुर्खियां नहीं बन पाती। गांव पूरी तरह से मीडिया के लिए अपेक्षित है। जबकि गांव में जन समस्या के साथ-साथ किसानों की बहुत सारी समस्याएं बनी रहती है। बिहार के पूर्णिया जिले के बनमंखी प्रखड के मसूरियामुसहरी गंव के प्रथमिक स्कूल में डेढ़ साल में कभी कभार शिक्षक पढाने आते थे। लेकिन, आकाशवाणी पर ९ दिसंबर २०१० इस संबंध में खबर आयी। खबर के आने के बाद प्रशासन हरकत में आयी और दूसरे दिन से स्कूल में शिक्षक आने लगे। बात साफ है मीडिया की नजर गांव पर पड़ेगी तो गांव खबर में आयेगा और वहाँ की जनसमस्याओं पर प्रशासन सक्रिय हो पायेगा। हालांकि कभी कभार मीडिया में गांव की खबरें आती है लेकिन वह कई दिनों के बाद। असके पीछे कारण यह है कि मीडिया से जुड़े लोग शहर और कस्बा, ब्लॉक तक ही सीमित है। अखबार वाले अपने प्रतिनिधियों को गांव में नहीं रखते। इसके पीछे आर्थिक कारण नहीं है क्योंकि ज्यादातर अखबरों के ब्लॉक प्रतिनिधि बिना किसी मेहनाता के रखे जाते है। अगर वे विज्ञापन लाते हैं तो उन्हें उसका कमीशन भर दिया जाता है। ग्रामीण भारत के नजरिए से देखा जाए तो कई गांवों में टीवी सेट नहीं हैं। असके पीछे बिजली का नहीं होना सबसे बड़ा कारण है। हालांकि ब्लॉक के करीब के गांवों में टीवी सेट ही नहीं केबल टीवी आ चुका है या फिर बैटरी पर ग्रामीण टीवी का मजा लेते हैं। जहां तक बिहार के गांवों का सवाल है, प्रत्येक घर में टीवी सेट उपलब्ध नहीं है। कमोबेश देश के अन्य राज्यों के गांवों में भी यही स्थिति बनी हुई है। बडा ही र्दुभाग्य की बात है कि संचार क्रांति के दौर में गांवों में शहरों की तरह समाचार पत्र/ टीवी सेट तो नहीं पहुंच है। लेकिन मोबाइल फोन ने ग्रामीण क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया है। गांव का मुखिया हो या मनरेगा में काम करने वाला मजदूर आज मोबाइल के दायरे में आ चुका है। एनआरएस-२००२ के आंकडे से पता चलता है कि बिहार के गांवों में १८ घरों में से केवल एक घर में टी.वी सेट था। पंजाब में पांच से तीन था। वहीं उत्तर प्रदेश के गांवों में ८० प्रतिशत घरों में टी.वी. नहीं था। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जो मीडिया सिर्फ देश की राजधानी तक ही सीमित हुआ करता था आज वह राजपथ से होते हुए कस्बा और गांव तक पहुंच चुका है। थोड़ी देर के लिए प्रिंट मीडिया को दरकिनार कर दें तो पाएंगे कि रेडियो पत्रकारिता की पहुंच गांवों में ज्यादा है। प्रयास प्रिन्ट मीडिया का भी होना चाहिए इस दिशा



शरीर की भाषा
 भोपाल (आईएएनएस)। हममें से हर कोई अपनी भावना या विचार का इजहार करने के लिए किसी न किसी तरीके का इस्तेमाल करता है।
यह आवश्यक नहीं है कि संवाद कायम करने के लिए हमेशा जुबान से बोले जाने वाले शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाए। कभी कभी शरीर की भाषा जुबान से अधिक स्पष्ट और ताकतवर होती है।
कई बार वक्ता अपनी बातों के साथ कई तरह की भाव-भंगिमाओं का इस्तेमाल करते हैं। यह वक्ता द्वारा बोली जाने वाली बातों को सकारात्मक या नकारात्मक तरीके से मदद करता है। इतना ही नहीं यह वक्ता के बारे में उन बातों को भी बताता है, जो वक्ता कहना नहीं चाहता है। मसलन उसकी सोच और विचार के बारे में जाने-अनजाने कई राज उगल देती हैं हमारी भाव-भंगिमाएं।
कई बार हम वाक्य को अधूरा छोड़ कर उसे भाव भंगिमाओं या शरीर की भाषा के माध्यम से पूरा करते हैं, क्योंकि कई बार कुछ बातें बोलने में असुविधाजनक होती है। कई बार हम जुबान से बोले जाने वाले एक साधारण से वाक्य या शब्द को शारीरिक हाव-भाव से एक विशेष अर्थ भी देते हैं।
इसलिए शारीरिक हाव-भाव जैसे चेहरे की भंगिमा, हाथों का इशारा, देखने का तरीका या शारीरिक मुद्रा, आदि का संवाद में बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। याद कीजिए कई बार हम सिर्फ मुस्कराकर, ऊंगली दिखाकर, हाथों से इशारा कर कितना कुछ कह जाते हैं।
हम अपनी मुद्राओं के माध्यम से हालांकि कुछ न कुछ तो कहते ही रहते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि हमारी मुद्राओं को देखने वाला व्यक्ति भी हमारी मुद्राओं के वही अर्थ समझे, जो हम वाकई कहना चाहते हैं। क्योंकि एक ही मुद्रा का अर्थ अलग-अलग समाज और संस्कृति में अलग लगाया जा सकता है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारी मुद्राएं हमारे बारे में इतना कुछ कहती हैं कि कई बार हम यह महसूस भी नहीं कर सकते हैं। एक ही शब्द अलग-अलग भंगिमा के साथ कहे जाने पर कभी गंभीर तो कभी अपमानजनक तौर पर ली जा सकती है।
संप्रेषण विज्ञान पर काम करने वाले शोधार्थियों का मानना है कि हम जो कुछ भी कहते हैं उसके साथ यदि सही शारीरिक भाषा को भी जोड़ दिया जाए, तो हम उसके अर्थ का अधिक-से-अधिक सटीक संप्रेषण करने में सफल हो सकते हैं।
यहां कुछ शारीरिक भंगिमाओं और मुद्राओं और उनके अर्थ की एक सूची दी जा रही है, लेकिन अलग-अलग परिस्थितियों में इसके अर्थ बदल भी सकते हैं।
मुद्राएं (अर्थ)
आगे की ओर पसरा हुआ हाथ (याचना करना)
मुखाकृति बनाना (धीरज की कमी या अधीर)
कंधे घुमाना फिराना या उचकाना (विदा होना, अनभिज्ञता जाहिर करना)
मेज पर उंगलियों से बजाना (बेचैनी)
मुट्ठी भींचना और थरथराना (गुस्सा)
आगे की ओर उठी और सामने दिखती हथेली (रकिए और इंतजार कीजिए)
अंगूठा ऊपर उठा हुआ (सफलता)
अंगूठा गिरा हुआ (नुकसान)
मुट्ठी बंद करना (डर)
आंख मींचना (ऊबना)
हाथ से किसी एक दिशा की ओर इशारा करना (जाने के लिए कहना)
तेज ताली बजाना (स्वीकृति)
धीरे से ताली बजाना (अस्वीकार, नापसंदगी)
आज के जमाने में जब हर आदमी के पास समय बहुत कम होता है, ये मुद्राएं संवाद में बहुत काम आ सकती हैं और संप्रेषण में बहुत कारगर हो सकती हैं।
भाषण, प्रस्तुति आदि में इन मुद्राओं का इस्तेमाल कर हम किसी खास विचार, भाव का आसानी से संप्रेषण कर सकते हैं या आसानी से अपने पक्ष में माहौल बना सकते हैं।

बैतूल घरेलू हिंसा के सबसे ज्यादा मामले बैतूल से द्वश्च

स्नह्म्द्गद्ग हृद्ग2ह्यद्यद्गह्लह्लद्गह्म् स्द्बद्दठ्ठ ह्वश्चबैतूल घरेलू हिंसा के सबसे ज्यादा मामले बैतूल से द्वश्चङ्कशह्लद्ग ह्लद्धद्बह्य ड्डह्म्ह्लद्बष्द्यद्ग (०) (०).
भोपाल। महिलाओं संबंधी अपराधों के मामले में गरीब और भुखमरी से बेहाल राज्य मध्य प्रदेश, आपराधिक राज्य उत्तर प्रदेश से किसी भी मामले में पीछे नहीं है। लेकिन घरेलू हिंसा के मामले में मध्य प्रदेश का बैतूल शहर सबसे आगे पाया गया है। क्योंकि राज्य में घरेलू हिंसा के सबसे ज्यादा मामले बैतूल में दर्ज किए गए हैं।
यह संख्या पूरे प्रदेश में दर्ज मामलों के मुकाबले लगभग ४० फीसदी है। प्रदेश में घरेलू हिंसा की कुल १० हजार शिकायतें दर्ज की गई हैं। प्रदेश में सबसे ज्यादा घरेलू हिंसा की शिकायतें बैतूल जिले में ४ हजार से ऊपर दर्ज की गई हैं। सरकार के मुताबिक इनमें से २ हजार से ऊपर मामलों का निराकरण किया गया है।
सरकार के मुताबिक घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं को सहायता मुहैया कराने के लिए उषा किरण योजना के तहत काम किया जा रहा है। इस योजना के तहत अब तक १० हजार ९४४ शिकायतें दर्ज कराई गई हैं। इनमें से ज्यादातर मामलों को परामर्श और कानूनी
सलाहों के जरिए निबटाया गया है। यह योजना महिला संरक्षण अधिनियम २००५ (घरेलू हिंसा के विरुद्ध संरक्षण व सहायता का अधिकार) पर आधारित है

शंकरदयाल सिंह----(यह कहानी नहीं है)
सारांश: प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश संभव है कहानी-संग्रह के इस नाम (यह कहानी नहीं है) से तथा कहानीकार के रूप में शंकरदयाल सिंह को अपने सामने पाकर आप चौंके, मानो यह कोई जीवित सपना हो। विश्वास कीजिए, इन कहानियों के बीच से गुजरते हुए आपको सहज एहसास होगा कि किसी भी कहानी का बिंब परीलोक की गाथा नहीं; बल्कि वह यथार्थ है जो पानी का बुलबुला नहीं होता; बरौनियों और पलकों के आसपास का वह अश्रुकण है जिसमें अनुभूति की सचाई तथा दर्द की गहराई दोनों होती हैं। च्यह कहानी नहीं हैज् की कहानियों का फासला तथा परिवेश गत २५-३० वर्षों का वृत्त है, जिसे पाठकों ने ज्ञानोदय, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कहानी,, कहानीकार, ज्योत्सना, मुक्तकंठ आदि के पन्नों पर सुहागवती मछलियों के समान थिरकते या फिर मुंशी और मादल के समान रुदन-हास करते देखा-सुना होगा। कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ नेपथ्य की आवाज़ नहीं हैं, समय-शिल्प की यथार्थवादी पकड़ है। प्रकाशक सम्पादकीय भारतीय राजनीति-क्षेत्र और हिन्दी साहित्य जगत् दोनों ही के लिए शंकरदयाल सिंह जी का नाम कोई नया नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में जहाँ उनका व्यक्तित्व एक सुलझे हुए राजनेता के रूप में उभरकर सामने आया है वहीं हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उनकी लेखिनी का जादू पाठकों को वर्षों से आकृष्ट करता रहा है। जहाँ एक ओर उन्होंने अपनी राजनीतिक-यात्रा में अनेक पड़ाव तथा मंजिलें तय की हैं वहीं दूसरी ओर सर्जनात्मक साहित्य-लेखन में अनेक कीर्ति-स्तंभ स्थापित किए हैं। विषमताओं और कुटिलताओं से प्रदूषित आज के इस राजनीतिक वातावरण में शंकरदयाल जी ने गांधीवादी आदर्शों की चादर ओढ़कर जो छवि स्थापित की है, वह आगे आनेवाले राजनेताओं के लिए च्आदर्शज् बनेगी और उनका दिशा-निर्देश करेगी। दूसरी ओर सर्जनात्मक साहित्य के क्षेत्र में, विशेषकर च्संस्मरणज् और च्यात्रा-वृत्तांतज् लेखन की परंपरा में, अपनी लेखिनी के माध्यम से हिन्दी साहित्य जगत् को उन्होंने जो अमूल्य निधि अर्पित की है, वह आगे आने वाले साहित्य लेखकों के लिए प्रेरणादायक साबित होगी। गत तीस-पैंतीस वर्षों से शंकरदयालजी साहित्य-लेखन से जुड़े रहे हैं और आज भी उनकी लेखन-धारा वेगवती प्रवाहित हो रही है। साहित्य की शायद कोई विधा हो जिस पर उन्होंने अपनी लेखिनी नहीं चलाई। कहानी, निबंध, आलोचना संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत आदि के क्षेत्र, विशेष रूप से, उनके प्रिय लेखन-क्षेत्र रहे हैं ! उन्होंने अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया है और वर्षों तक च्पारिजात प्रकाशन, पटनाज् से च्मुक्त कंठज् नामक पत्रिका का बड़ी सफलता के साथ संपादन भी करते रहे हैं। च्मुक्त कंठज् के माध्यम से अनेक प्रतिभाशाली नए लेखकों को साहित्यिक-मंच पर ला खड़ा करने में शंकरदयालजी की विशिष्ट भूमिका रही है। अलग-अलग साहित्यिक विधाओं से जुड़ा शंकरदयालजी का लेखन-कार्य देश की लगभग समस्त प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं तथा उनकी अपनी प्रकाशित पुस्तकों के माध्यम से पाठकों एवं साहित्यक मर्मज्ञों के समझ समय-समय पर बराबर आता रहा है। उनकी कुछ पुस्तकें ऐसी हैं जिनमें किसी एक विधा से संबंधित लेख हैं। अब, हमारी यह योजना है कि शंकरदयालजी जी अलग-अलग विधाओं से संबंधित समस्त प्रकाशित अथवा अप्रकाशित रचनाओं को अलग-अलग पुस्तक-खंड़ों में प्रकाशित किया जाए। इस योजना के अन्तर्गत हम उनकी कहानियाँ, निबंध संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत तथा डायरी से संबंधित लेखन-साहित्य को पाँच अलग-अलग खंडों में पाठकों के समझ प्रस्तुत करने जा रहे हैं। प्रस्तुत है च्यह कहानी नहीं हैज् हमारी उसी योजना का प्रथम चरण है जिसमें शंकरदयालजी की अब तक प्रकाशित तथा अप्रकाशित समस्त कहानियों को स्थान दिया गया है। जहां तक कहानी-लेखन का प्रश्न है, शंकरदयालजी की अधिकांश कहानियाँ छठे दशक के उत्तरार्द्ध तथा सातवें दशक के मध्य लिखी गई हैं तथा इनका प्रकाशन १९७४ से १९८५ के अंतर्गत अलग-अलग कहानी-संग्रहों के माध्यम से हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम खंड में इन्हीं कहानियों को रखा गया है। शंकरदयालजी ने इन कहानियों के अतिरिक्त अनेक च्लघु कहानियोंज् की भी रचना की है। वस्तुत: ये लघु-कहानियाँ लेखक के च्लघु-भावबोधज् हैं जो पाठक के मानस-पटल पर बड़ी ही द्रुत गति से अपने प्रभाव अंकित करने में पूर्णत: समर्थ हैं। प्रस्तुत संकलन के द्वितीय खंड में हमने इन्हीं लघु कथाओं को स्थान दिया है। सर्जनात्मक साहित्य-लेखन की जिस परंपरा का वहन शंकरदयालजी की लेखिनी ने किया है, कहानी-लेखन भी उसी परंपरा का एक अंग है। परंतु, यही एक विधा ऐसी है जिस पर पिछले दस-पंद्रह सालों से लेखक ने लिखना लगभग बंद-सा ही होकर कर दिया है। लेकिन यह इस बात का परिचायक नहीं है कि लेखक को कहानी लिखना प्रिय नहीं है अथवा कहानी अब लेखक के मन में रूपायित नहीं होती। शंकरदयालजी एक संवेदनशील व्यक्तित्व हैं। उनके मानसिक धरातल पर तो ये कहानियाँ अब भी रूप ग्रहण करती हैं परंतु उनकी मानसिक अभिव्यक्ति लिखित अभिव्यक्ति के रूप में साकार नहीं हो पाती। उसके दो प्रमुख कारण हैं-एक तो व्यस्तताओं से घिरा उनका जीवन-चक्र तथा दूसरे, इन दिनों उनकी रुचि संस्मरण तथा यात्रा-वृत्तांत-लेखन के क्रम में आया यह व्यवधान जल्दी ही समाप्त होगा और वे अपनी नई रचनाओं के साथ पाठकों के समक्ष पुन: उपस्थित होंगे। प्रस्तुत कहानी-संग्रह च्यह कहानी नहीं हैज् का संपादन कार्य करते समय हम लोगों को अनेक बार शंकरदयालजी से परामर्श लेने की आवश्यकता पड़ी है और आगामी खंडों के प्रकाशन में भी पड़ेगी। परन्तु कठिनाई यह है कि उनके व्यस्त समय में से कुछ क्षण पा लेना कोई आसान कार्य नहीं है। फिर भी, उनकी इच्छा-अनिच्छा के बावजूद हम लोग उनके बहुमूल्य समय में से कुछ समय चुरा पाने में सफल हो ही गए हैं। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि शंकरदयालजी का च्सान्निध्यज् सदा प्रेरणा और स्फूर्तिदायक होता है। हम लोगों को उनके सान्निध्य का जो सुख मिला है, उसके लिए हम लोग उनके आभारी हैं। हमें पूर्ण आशा है कि हमारी उक्त योजना से तथा हमारे इस प्रयास से पाठकों को तो लाभ होगा ही, साहित्यकारों और साहित्य-समीक्षकों को भी एक ही संग्रह में लेखक की समस्त कहानियाँ आ जाने से सुविधा होगी। इसके अतिरिक्त आज देश के कई विश्वविद्यालयों में शंकरदयालजी के साहित्य पर जो शोध-छात्र शोधकार्य कर रहे हैं, निश्चित ही वे लोग इस योजना से लाभान्वित हो सकेंगे। नई दिल्ली -रवि प्रकाश गुप्त -मंजु गुप्ता कुछ मैं भी कह दूँ कहानी का दर्द और कहानी का सौन्दर्य अपना होता है। कहानी के बारे में कहानीकार का कहना कुछ भी मायने नहीं रखता, क्योंकि इस संबंध में जो भी कहना हो, वह कहानी स्वयं अपने आप कहेगी। इतना स्पष्ट है कि किसी भी कहानी में किसी-न-किसी रूप में कहानीकार आलिप्त रहता है। मैंने लेखन की शुरुआत कहानी से ही की थी। १९५३ या ५४ में आयोजित एक कथा-प्रतियोगिता में मेरी कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला था, जिसे उस समय सराहना मिली तथा च्आजज् में प्रकाशित हुई। उसकी प्रेरणा मेरे लेखन पर पड़ी। बाद के दिनों में मेरी धारणा बदल गई और मैंने सोचा कि जब सामयिक संदर्भों में ही लेखन की इतनी सारी बातें तैर रही हैं, तब फिर कल्पना का सहारा क्यों लिया जाए। मेरी इस धारणा के पीछे यह सचाई थी कि सबसे अधिक पाठक समाचार-पत्रों के हैं, जो सामयिक संदर्भों में रुचि रखते हैं अथवा उनसे जूझना चाहते हैं। अखबार आज के जीवन की अनिवार्यता हो गई है, जहाँ शीर्षकों के सहारे आज का आदमी दिन की शुरुआत करता है तथा धारणाओं का संसार गढ़ता है। अत: कहानियों की जगह, सचाइयों से टकराने लगा। कभी संस्मरणों के द्वारा, कभी यात्रा-प्रसंगों के माध्यम से तथा कभी सामयिक संदर्भों को लेकर। जहाँ तक मुझे याद है, १९८४ के बाद मैंने कोई कहानी नहीं लिखी, लेकिन कहानी का दर्द सदा मेरे अंदर पलता रहा है। आज मुझे प्राय: इलहाम होता है कि राजनीतिक कहानियाँ लिखूँ, क्योंकि सामाजिक, प्रेमपूर्ण और ऐतिहासिक कहानियों की अपेक्षा बहुत बड़े पाठक-वर्ग का रुझान इस ओर है। कहानी अपनी यात्रा में अब काफी आगे निकल चुकी है। कहानी, अकहानी, यथार्थवादी कहानी, आंचलिक कहानी, ग्रामीण कहानी, प्रेम कहानी आदि कई विधाओं में वह विभक्त है। लेकिन इस सबके बावजूद कहानी केवल कहानी होती है, जिसके साथ पाठक का सह भाग भी होता है। हालाँकि आलोचकों-समीक्षकों ने उसे अपनी-अपनी धारणाओं में उलझाने की कोशिश की है, जिन पर कुछ वादों का भी मुलम्मा है : खुशी की बात है कि आज सौ-दो सौ लघु-पत्रिकाएँ ऐसी निकल रही हैं जिनमें कई उल्लेखनीय कहानियाँ देखने को मिल जाती हैं। दूसरी ओर बड़ी पत्रिकाओं में अधिकतर बड़े नामों का झरोखा देखने को मिलता है। इस कहानी का शीर्षक च्उसने कहा थाज् या च्पंच परमेश्वरज् या च्गदलज् या च्धरती अब भी घूम रही हैज् नहीं हो सकता और लेखक का नाम गुलेरी, प्रेमचन्द्र, रांगेय राघव या विष्णु प्रभाकर नहीं होता। लेकिन हर कहानी की तासीर अपनी होती है और उसी प्रकार उस कहानीकार का नाम भी अपना होता है। कहानी की सही पहचान शीर्षक या लेखक के नाम पर न होकर उसकी गहरी छाप पाठक पर क्या पड़ी, वह है। दुनिया में सबसे अधिक कविताएँ लिखी गईं, कहानियाँ पढ़ी गई और उपन्यासों को मान्यता मिली। जाहिर है कि आज जब हर आदमी की जिंदगी भागते पहिए के समान है, वह कहानियों के सहारे ही अपनी पाठकीय क्षुधा की तृप्ति कर सकता है। मेरी इन बिखरी कहानियों का परिवेश काफी व्यापक है तथा क्रमबद्धता की कमी के कारण भाषा-शैली, कथासूत्र सबकी बेतरतीबी है। इनका एक जिल्द में आना किसी के लेखन की ऐतिहासिक पूँजी हो सकती है। ये कहानियाँ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के अंदर प्रकाशित हुई हैं। अनेक ऐसी कहानियाँ जो इस संग्रह में होती तो मेरे मन को संतोष होता, लेकिन खोजने-ढूँढने के बाद भी कई कहानियाँ नहीं मिलीं। जो मिल गई और संग्रहीत हो गईं, उनके लिए अप्रत्यक्ष रूप से अपने उन पाठकों के प्रति आभारी हूँ, जिनके प्रेम तथा लगाव ने मुझे लेखन की निरतंरता प्रदान की है। सबके बावजूद यह संग्रह डॉ. रवि प्रकाश गुप्त और डॉ. मंजु गुप्ता के परिश्रम और निष्ठा का फल है। रविजी ने केवल संपादन की औपचारिकता का निर्वाह ही नहीं किया, वरन् निष्ठा का परिचय भी दिया। अस्थायी पता: १५, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड, नई दिल्ली-११०००१ शंकरदयाल सिंह कामता-सदन, बोरिंग रोड पटना-८०


शंकरदयालजी एक राजनेता
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंशदो शब्दभारतीय राजनीति और हिंदी साहित्य जगत् के फलक पर यो तो अनेक राजनीतिज्ञ और साहित्यकार उदित हुए और अस्त हो गए, परंतु इन दोनों ही क्षेत्रों में अपना अस्तित्व बनाए रखने वाला एक नाम है-श्री शंकरदयाल सिंह। जहाँ शंकरदयालजी ने एक लंबे अंतराल तक राजनीतिक इतिहास को जिया है वहीं साहित्यकार के क्षेत्र में विशेष रूप से यात्रा-वृतान्त और संस्मरण-लेखन में, कीर्तिमान, स्थापित किया है। यही कारण है कि शंकरदयाल सिंह आज एक ऐसा नाम है जिससे शायद ही कोई अपरिचित हो।
शंकरदयालजी एक राजनेता हैं, संसद-सदस्य है, इसलिए राजनीतिक जीवन की व्यवस्थाएँ बहुत अधिक हैं। आज उनके पास सब कुछ है-यश है, प्रतिष्ठा है, सम्मान है; और यदि नहीं है तो केवल समय नहीं है। निरंतर भाग-दौड़ की यायावरी जिन्दगी जीनेवाले शंकरदयालजी के जीवन का एक-एक क्षण कितना व्यस्त है, इसे उनके सम्पर्क में आए बिना समझा नहीं जा सकता। परंतु लेखन साहित्य के प्रति उनकी रुचि और निष्ठा दोनों ही श्लाघ्य हैं। माँ सरस्वती की कृपा है कि आज लगभग तीस-पैंतीस पुस्तकें उनके नाम से प्रकाशित हैं और लगभग ढाई-तीन सौ लेख देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुँचते रहे हैं।
संस्मरण और यात्रा-वृतान्त ऐसी विधाएँ हैं जिनको वहीं व्यक्ति प्रभावी ढंग से लिख सकता है जो संवेदनशील होने के साथ-साथ अपने परिवेश की छोटी-बड़ी सभी वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं आदि के प्रति सचेत और जागरूक हो। शंकरदयालजी में ये गुण जन्मजात हैं।
यों तो शंकरदयाल जी ने सभी प्रकार के व्यक्तियों पर संस्मरण लिखे हैं, परंतु राजनीतिक एवं साहित्यिक हस्तियों पर लिखे उनके संस्मरणों का तो जवाब ही नहीं है। राजनीतिक हस्तियों पर लिखे उनके संस्मरण पाठक के समक्ष एक इतिहास उजागर कर देते हैं। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध पुस्तक च्इमरजेंसीः क्या सच, क्या झूठ एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें तत्कालीन बड़े-बड़े राजनेताओं के असली चेहरे सामने आ जाते है। शंकरदयालजी के राजनीतिक व्यक्तियों पर लिखे संस्मरण उन व्यक्तियों के चरित्र का सही आकलन प्रस्तुत करते है।
शंकरदयालजी के अलग-अलग साहित्यिक विधाओं वाले लेखन को अलग-अलग खंडों में प्रकाशित करने की योजना हम लेकर चले है। इस योजना के अंतर्गत च्कहानी खंडज् तथा च्यात्रावृत्तांत खंडज् भी साथ-साथ प्रकाशित किए जा रहे हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनके अब तक के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरण संकलित किए जा रहे हैं।
हमें आशा है कि पाठक तथा वे सभी शोधार्थी जो शंकरदयाल के साहित्य पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध कार्य कर रहे हैं, इन संग्रहों का लाभ उठा सकेंगे।
रवि प्रकाश गुप्त
मंजू गुप्ता
कुछ कहने के बहाने
संस्मरण मात्र कोई विधा नहीं है। मेरी समझ में वह विधा से बढ़कर अनुभूति और अनुभूति से परे एक आत्मिक संवाद है। ऐसे निबन्ध दुनिया की हर भाषा में बहुतायत में लिखे गए हैं, लिखे जा रहे हैं और भविष्य में भी लिखे जाते रहेंगे।
हिंदी में तथा भारतीय भाषाओं में भी संस्मरणात्मक लेखों की कमी नहीं है, जिसमें अधिकाँश जन्म-दिवसों, अभिनंदन-ग्रन्थों तथा मरणोपरांत लिखे गए हैं। साक्षात्कार के बहाने भी संस्मरण आकार ग्रहण करते रहे हैं।
जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने इस तरह का पहला संवाद या संस्मरण १९५४ में च्आजज् के लिए लिखा था-काशी की पाँच विभूतियों से भेंटज्। इस भेंट में शामिल थे-भारतरत्न डॉ. भगवान दास, महान, शिक्षाविद डॉ. इकबाल नारायण गुर्टू, सुप्रसिद्ध कला साधक राय कृष्णदास, समाजवाद के अग्रदूत अच्युत पटवर्द्धन तथा विख्यात संगीतज्ञ पंडित ओंकारनाथ ठाकुर। बाद के दिनों में यह सिलसिला जारी रहा।
कभी विश्वविख्यात विचारक-चिंतक जे. कृष्णमूर्ति पर लिखा, तो कभी आचार्य हजारी प्रसाद द्विदेदी पर। अब जो यह संस्मरणों का मेरा विशाल गुच्छ आपके सामने है निश्चय ही तीस-बत्तीस वर्षों के कालक्रम को अपने में समेटे हुए है। किसी को देखा, किसी को सुना, किसी से मिला, किसी को पढ़ा और किसी को जानने के लिए उसमें डूबा तो स्वतः ही आकारबद्ध कर दिया। इसमें न तो मेरी ओर से कोई खयाल उभरा कि कौन बड़ा है और कौन छोटा ? और किसके साथ वर्षों रहा तथा किसके साथ मात्र कुछ लमहे कटे। कौन साहित्यकार है और कौन सांस्कृतिक तथा कौन राजनीतिक, इसकी भी पहचान मैं नहीं रख सका। जो भी दायरे अथवा परिवेश में आए, उन्हें साहित्यिक अनुभूतियों के साए में कैद करने की मैंने कोशिश की।
संस्मरण लिखने का कार्य भी बड़ा दुरुह है। जिनके आप करीब है उनकी बुराइयों को नजर अन्दाज कर केवल उनकी अच्छाइयां ही लिखनी पड़ती हैं। फिर अधिकाश संस्मरण रस्म अदायदगी से हो जाते हैं। अपने अंदर भी यह दोष मैं मानता हूँ।
संग-साथ चलने का सुख अपना होता है। भावी पीढ़ी अब अपने अतीत में झाँकेगी और कुछ लोगों को पहचानना चाहेगी तो उसे किसी का सहारा लेना पड़ेगा। संभव है मेरी ये रचनाएं इस रूप में ही कहीं काम की साबित हों।
बच्चनजी ने अपने बारे में लिखा है-
च्च्जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं मैं बैठ, कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, जाना, उसमें क्या बुरा-भला !ज्ज्
मैं स्वयं अपने आपको इसी चौखट में जकड़कर सोचा करता हूँ कि क्या किया ? क्या पाया ? क्या छोड़ जाऊँ ? संतोष और सुख है तो यही कि अपनी आँखों राष्ट्रपिता गांधी से लेकर राजेन्द्र बाबू तक को देखा। इंदिरा गांधी से लेकर डॉ. शंकरदयाल शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी तक का स्नेह-सद्भाव मिला। यदि इन सबको किसी-न-किसी रूप में आकार न देता तो इतिहास के प्रति एक अन्याय होता।
जीवन कहा कम, अनकहा अधिक रह जाता है। हम अपनों को सत्य बनाते-बनाते सत्य को ही सपना बना देते हैं। जीवन की भाग-दौड़ में कितने आते हैं और कितने चले जाते हैं, न तो उन्हें आँक पाते हैं और न उन्हें टाँक पाते हैं। हममें यह शक्ति होती है कि हर मिलनेवाले का एक चित्र कूची और रंगों के सहारे हम बनाकर रख लेते तो वह हमारे लिए एक अक्षय कोष होता।
मैंने सैकड़ों की तादात में संस्मरण लिखे लेकिन कभी भी किसी चौखटे में उन्हें जकड़ने के लिहाज से नहीं, मुक्तभाव और उन्मुक्त परिवेश से लिखा। साहित्य की सृजनात्मकता और व्यक्तित्व, दोनों मेरे सामने रहे।
लगभग छः पुस्तकों और पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी सामग्रियों को माँजना, सँवारना और क्रमबद्धता प्रदान करना टेढ़ी खीर थी। मेरे दो स्नेही मित्रों ने अधिकारपूर्णक अपने हाथों में यह कार्य लिया–डॉ. रवि गुप्त तथा डॉ. मंजु गुप्त ने। उनके स्वाध्याय और निष्ठा की छाप यह संग्रह है, अन्यथा सामग्रियाँ इधर-उधर बिखर जातीं और एक जिल्द में नहीं आ पातीं। क्या इन दोनों व्यक्तियों के प्रति शब्दों के सहारे ऋण भार कम कर पाऊँगा ?
मेरी पत्नी कानन और पुत्र रंजन मेरे ऐसे कार्यों में सहायक का पार्ट अदा करते हैं। संजय ने सामग्रियों को बटोरने में जो कर्मठता दिखाई, उसका मैं लोहा मानता हूँ। ओम प्रकाश ठाकुर ने टंकण की अपनी क्षमता का विकास इन रचनाओं के सहारे किया है तथा वीरेन्द्र और सुदामा मिश्र भाग-दौड़ में कभी पीछे नहीं रहे।
आदमी में कमजोरी और मजबूती दोनों होती हैं कि किसी वस्तु को आकार देते हुए अपनों को याद करता है। मेरी मजबूती और लाचारी दोनों हैं कि किनका उल्लेख करूँ और किन्हें छोड़ूँ। जिनका नामोल्लेख न किया उनका महत्त्व उनसे कम नहीं है।
शंकरदयाल सिंह
कामना सदन,
बोरिंग रोड, पटना-८०० ००१
कुछ अमिट क्षण
च्च्कभी-कभी हम किसी से मिलकर भी नहीं मिल पाते लेकिन कभी-कभी किसी को देखकर ऐसा लगता है कि इनसे तो हम युग-युग से परिचय रहे हैं। कोई जनम-जनम का रिश्ता हैं,ज्ज् श्री रामनारायण उपाध्यायजी के ये शब्द बार-बार कानों से टकराते हैं, जो संसद सदस्य, लेखक एवं पत्रकार श्री शंकरदयालजी के लिए च्मैंने इन्हें जानाज् की भूमिका में हार्दिक उदगार के रूप में व्यक्त किए गए हैं। ये शब्द न केवल उपाध्याय जी के हो सकते है वरन शंकरदयाल जी से मिलने के बाद हर व्यक्ति की यही धारणा बनती है कि यह स्नेही व्यक्तित्व कितना परिचित-सा है। कितना पहचाना हुआ-सा !! यही कारण है कि इनका परिचय एंव नाम, विविधमुखी व्यक्तित्व एवं साहित्यिक प्रतिभा आज हिंदी जगत के लिए भी अपरिचित नहीं है; और ये एक मँजे हुए साहित्यकार के रूप में ही हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि शंकरदयालजी एक ऐसे लेखक हैं जो नीड़-निर्माण के साथ ही उनको सहेजने के प्रति भी सावधान रहते है।ज् स्मृतियों का एक-एक पल सहेजकर रखते हैं, फिर उन्हें अत्यंत प्रभानी ढंग से शब्दबद्ध कर अभिव्यक्त प्रदान करते हैं।

muktakantha, kamta seva kendra

मुक्तकंठ ही क्यों
अनामी शरण बबल
आखिरकार इस पत्रिका मुक्तकंठ में ऐसा क्या है कि इसके बंद होने के २७ सालों के बाद इसी पत्रिका को फिर से शुरू करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। यह बात सही है, कि इसे ही क्यों आरंभ करें। मुक्तकंठ को करीब १७-१८ साल तक लगातार निकालने के बाद बिहार के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और राजनीति में समान रूप से सक्रिय शंकरदयाल सिंह ने इसे १९८४ में बंद कर दिया था। बंद करने के बाद भी शंकर दयाल सिंह के मन में मुक्तकंठ को लेकर हमेशा एक टीस बनी रही, जिसे वे अक्सर व्यक्त भी करते थे। मुक्तकंठ उनके लिए अभिवयकित का साधन और साहित्य की साधना की तरह था, जिसे वे एक योगी की तरह सहेज कर ऱखते थे। मुक्तकंठ और शंकरदयाल सिंह एक दूसरे के पूरक थे।
बिहार में मुक्तकंठ और शंकर दयाल की एक ही पहचान मानी जाती थी। इसी मुक्तकंठ को १९८४ में बंद करते समय उनकी आंखे छलछला उठी और इसे वे पूरी जवानी में अकाल मौत होने दिया।
एक पत्रिका को शुरू करने को लेकर मेरे मन में मुक्तकंठ को लेकत कई तरह के सवाल मेरे मन में उठे, कि इसे ही क्यों शुरू किया जाए। सहसा मुझे लगा कि सालों से बंद पड़ी इस पत्रिका को शुरू करना भर नहीं है, बलिक उस सपने को फिर से देखने की एक पहल भी है, जिसे शंकर दयाल जी ने कभी देखा था।
देव औरंगाबाद (बिहार) की भूमि पर साहित्य के दो अनमोल धरोहर पैदा हुए। कामता प्रसाद सिंह काम और उनके पुत्र शंकर दयाल सिंह ही वो अनमोल धरोहर हैं, िजनकी गूंज दोनों की देहलीला समाप्त होने के बाद भी आज तक गूंज रही है। सूय() नगरी के रूप में बिख्यात देव की धामिक छवि को चार चांद लगाने वालों में पिता-पुत्र की जोड़ी से ही देव की कीति बढ़ती रही। देव में साहित्यकारों और नेताअो की फौज को हमेशा लाते रहे। देव उनके दिल में बसा था और देव की हर धड़कन में शंकर दयाल की की उन्मुक्त ठहाकों की ठसक भरी याद आज तक कायम है। शंकर दयाल  जी के पिता कामता बाबू से पहले देव के राजा रहे राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह ने भी अपने शासन काल के दौरान नाटक, अभिनय और मूक सिनेमा बनाकर अपनी काबिलयत और साहित्य, संगीत,के प्रति अपनी निष्ठा और लगन को जगजाहिर किया था। इसी देव भूमि के इन तीन महानुभावों ने साहित्य, संगीत के बिरवे को रोपा था, जिसे शंकर दयाल जी के पुत्र रंजन कुमार सिंह और आगे ले जाते हुए फोटोग्राफी और फिल्म बनाने के साथ     अंग्रेजी लेखन से इसी परम्परा को अधिक समृद्ध बनाया है।
मुक्तकंठ से आज भी बिहार के लोगों को  तीन दशक पहले की यादे ताजी हो जाती है। अपने गांव और अपने लोगों की इस धरोहर या विरासत को बचाने की इच्छा और ललक के चलते ही ऐसा लगा मानो मुक्तकंठ से बेहतर कोई और नाम हो ही नहीं सकता। सौभाग्यवश यह नाम भी मुझे िमल गया। तब सचमुच ऐसा लगा मानों देव की एक िवरासत को िफलहाल बचाने में मैं सफल हो गया। इस नाम को लेकर जिस उदारता के साथ शंकर      दयाल जी के पुत्र रंजन कुमार सिंह ने अपनी सहमति दी वह भी मुझे अभिभूत कर गया। एक साप्ताहिक के तौर पर मुक्तकंठ को आरंभ करने के साथ ही ऐसा लग रहा है मानों देव की उस विरासत को फिर से जीवित करने की पहल की जा रही है, जिसका वे हमेशा सपना देखा करते थे। हालांकि मुक्तकंठ के नाम पर जमापूंजी तो कुछ भी नहां है, मगर हौसला जरूर है कि अपने घर आंगन और गांव के इन लोगों की यादों को स्थायी तौर पर कायम रखने की चेष्टा क्यों ना की जाए। मैं इसमें कितना कामयाब होता हूं, यह तो मैं नहीं जानता, मगर जब अपने घर की धरोहरों को कायम रखना है तो चाहे पत्र पत्रिका हो या इंटरनेट वेब हो या ब्लाग हो, मगर देव की खुश्बू को चारो तरफ फैलाना ही है। इन तमाम संभावनाअों के साथ ही मुक्तकंठ को २७ साल के बाद फिर से शुरू किया जा रहा है कि इसी बहाने फिर से नयी पीढ़ी को पुराने जमाने की याद दिलायी जाए, जिसपर वे गौरव से यह कह सके कि वे लोग देव के ही है।त्

पुष्पेश पंत, कूटनीतिक विश्लेषक
वर्ष २०१० कई मायनों में महत्वपूर्ण समझा जा सकता है- अमरीका, भारत, रूस, फ़्रांस सबकी विदेश नीति में काफ़ी बदलाव हुए। अब सवाल ये है कि २०११ में दुनिया का हाल क्या होगा? देश-विदेश में होने वाली हलचल हमें किस तरह से प्रभावित करेगी?
अफगानिस्तान
सबसे पहली बात जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए वो ये है कि भले ही अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी फ़ौज की वापसी का जितना भी शोर मचता रहे, ये रणक्षेत्र विस्फोटक बना रहेगा। अफ़ग़ानिस्तान में पश्चिमी नमूने के जनतंत्र को जबरन थोपने या राजनीतिक-सैनिक शल्यचिकित्सा द्वारा कृत्रिम रूप से प्रत्यारोपित करने के सभी प्रयास नाकाम रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान की भूगौलिक स्थिति ऐसी है कि यहाँ का घटनाक्रम ईरान और इराक़ को प्रभावित करता है और उनसे प्रभावित होता है। कुल मिलाकर संकट का ये चंद्र राहुकाल में फँसा रहेगा।
भले ही अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी फ़ौज की वापसी का जितना भी शोर मचता रहे, ये रणक्षेत्र विस्फोटक बना रहेगा। अफ़ग़ानिस्तान ख़ूंखार कबायली अतीत और जोख़िम भरे भविष्य के बीच एक ऐसे वर्तमान में जी रहा है जहाँ अराजकता फैली है। अब झक मारकर अमरीका को ताथकथित च्अच्छे तालिबानज् के साथ संवाद की पेशकश के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस बात को बार-बार रेखांकित करने से भी कुछ हासिल नहीं होने वाला कि कट्टरपंथी तालिबानरूपी इस जानलेवा नासूर को अमरीका ने ख़ुद पैदा किया है।
हक़ीक़त ये है कि आज अफ़ग़ानिस्तान ख़ूंखार कबायली अतीत और जोख़िम भरे भविष्य के बीच एक ऐसे वर्तमान में जी रहा है जहाँ अराजकता फैली है। अफ़ीम की तस्करी हो या हिंसक कट्टरपंथ का निर्यात- अफ़ग़ानिस्तान एक जटिल अंतरराष्ट्रीय संकट का केंद्र है। एक ओर इसके तार पाकिस्तानी फ़ौज से जुड़े हैं तो दूसरी ओर सामंतशाही सऊदी अरब से।

चीन- कभी नरम कभी गरम
विश्व पटल पर भारत-अमरीका के बढ़ते सहयोग के बीच चीन को टटोलना ज़रूरी है. चीन आज दुनियाभर की हलचल की दिशा तय करने वाली महाशक्ति है। भारत समेत अन्य देशों के साथ चीन का रवैया कभी नरम तो कभी गरम चलता रहेगा। उत्तर कोरिया को वो उसी तरह शह देकर इस्तेमाल करता रहेगा जैसे वो पाकिस्तान को करता है।
रूस को लगता है कि अमरीकी शिकंजे में कसा उसका विश्वासपात्र भारत कहीं चीन के निकट तो नहीं जा रहा। वहीं कुछ लोग इस बात से चिंतित हैं कि चीन का उपयोग अमरीका के वज़न को संतुलित करने के लिए किया जा सकता है। लेकिन २०११ में चीन वही करता रहेगा जो उसने २०१० में किया और कोई ख़ुशफ़हमी पैदा करने वाले नतीजे नहीं आएँग- यानी भारत समेत अन्य देशों के साथ चीन का रवैया कभी नरम तो कभी गरम चलता रहेगा।
उत्तर कोरिया को वो उसी तरह शह देकर इस्तेमाल करता रहेगा जैसे वो पाकिस्तान को करता है। इन दोनों ही देशों के संदर्भ में परमाणु अप्रसार और पडो़सी से तकरार की चुनौती जस की तस बनी रहेगी।
आक्रामक रुख़
चीन और विश्वसमुदाय का मत कई मुद्दों पर अलग रहा है। नेपाल के साथ-साथ दक्षिण एशिया में चीन अपना प्रभुत्व बढ़ाने की कोशिश के तहत श्रीलंका से गठजोड़ बढाएगा- कहीं प्रत्यक्ष रूप से कहीं अप्रत्यक्ष रूप से। अगर कोई देश चीन के इस मंसूबे को चुनौती देगा तो उसके प्रति चीन का रुख़ अप्रत्याशित रूप से आक्रामक हो सकता है। मानवाधिकारों का मुद्दा हो या पर्यावरण का, चीन के हित विश्वसमुदाय की आम सहमति से टकराते रहेंगे
बर्मा में तो उसने अपनी जड़ें काफ़ी मज़बूती से जमा ही ली हैं। कभी मज़बूत अर्थव्यवस्था वाले जापान की हालत आज ऐसी नहीं है कि वो दक्षिण कोरिया और ताइवान की मदद से चीन को उग्र आक्रामक तेवर अख़्तियार करने से रोक सके। २०११ में चीन न सिर्फ़ दक्षिण चीन सागर में दवाब बनाए रखेगा बल्कि अफ़्रीका से लेकर लातिन अमरीका में हर जगह संसाधनों पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए सक्रिय रहेगा।

कहीं अमरीका न डाले खलल
जहाँ तक अमरीका का सवाल है तो इस बात के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे कि आर्थिक मंदी और बढ़ती बेरोज़गारी की चपेट से उसे निकट भविष्य में पूरी तरह निजात मिल सकती है। इसका एक परिणाम तो ये होगा कि अमरीकी राष्ट्रपति और प्रशासन अंतरराष्ट्रीय मंच पर आसाधारण रूप से सक्रिय होकर कोई भी उपलब्धि हासिल करने के लिए उतावला रहेगा।
अतीत का अनुभव यही सिखाता है कि जब कभी ऐसी स्थिति पैदा होती है तो विश्व स्तर पर हालात अस्थिर होने लगते हैं। जाने कब अपने मतदाता का ध्यान भटकाने के लिए अमरीका कहीं हस्तक्षेप कर बैठे।
रूस में पुतिन बने भगवान
पुतिन अपने भरत यानी मेदवेदेव से पादुकाएँ वापस ले ख़ुद अपने पैरों में पहन दोबारा राज-काज संभालने की तैयारी कर सकते हैं। अब कोई संवैधानिक अड़चन आड़े नहीं आ सकती। भले ही चुनाव कुछ दूर हो पर च्सत्ता परिवर्तनज् की सुगबुगाहट के झटके यूरोप में दूर तक महसूस किए जा सकेंगे। चेचन्या, जॉर्जिया और यूक्रेन.. सभी की निगाहें रूस


मीडिया गांव से कितनी करीब मीडिया
गांव से कितनी करीब मीडिया !
 संजय कुमार
 संचार क्रांति के दौर में मीडिया ने भी लंबी छलांग लगायी है। मीडिया के माध्यमों में रेडियो, अखबार, टी.वी., खबरिया चैनल, अंतरजाल और मोबाइल सहित आये दिन विकसित हो रहे अन्य संचार तंत्र समाचारों को क्षण भर में एक जगह से कोसों दूर बैठे लोगों तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे
हैं। बात साफ है, बढते प्रतिस्पर्धा के दौर में मीडिया का दायरा व्यापक हुआ है। राष्ट्रीय अखबार राज्यस्तरीय और फिर जिलास्तरीय प्रकाशन पर उतर आये हैं। कुछ ऐसा ही हाल, राष्ट्रीय स्तर के टीवी चैनलों का भी है। चैनल भी राष्ट्रीय से राजकीय और फिर क्षेत्रीय स्तर पर आकर अपना परचम लहरा रहे हैं। मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक सभी ज्यादा-से-ज्यादा ग्राहकों / श्रोताओं तक अपनी पहुंच बनाना चाहते हैं। यकीनन आज बाजार, मीडिया पर हावी हो चुका है। अखबार और टीवी आपसी प्रतिस्पर्धा में आ गये हैं। मीडिया का स्वरूप आज बदल चुका है। राष्ट्रीय अवधारणा में तबदीली हो चुकी है। एक अखबार राष्ट्रीय राजधानी फिर राज्य की राजधानी और फिर जिलों से प्रकाशित हो रही है। इसके पीछे भले ही शुरूआती दौर में, समाचारों को जल्द से जल्द पाठकों तक ले जाने का मुद्दा रहा हो। लेकिन आज खबर पर, बाजार का मुद्दा हावी है। हर बड़ा अखबार समूह इसे देखते हुए अपने प्रकाशन के दायरे को बढ़ाने में लगा है। और आये दिन बड़े पत्र समूह छोटे-छोटे जिलों से समाचार पत्रों के प्रकाशन की घोषणा करते आ रहे है। एक अखबार दस राज्यों से भी ज्यादा प्रकाशित हो रहा है और उस राज्य के कई जिलों से भी प्रकाशन किया जा रहा है। साथ में दर्जनों संस्करण निकाले जा रहे हैं। दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक भाष्कर, दैनिक आज, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर जैसे कई समाचार पत्र हैं, जो कई राज्यों की राजधानी के अलावा राज्य के कई जिलों से कई संस्करण प्रकाशित कर रहे हैं। राष्ट्रीय अखबार क्षेत्रीय में तब्दील हो चुके हैं। जो नहीं हुए है वे भी प्रयास कर रहे हैं। पूरे मामलों में देखा जा रहा है कि एक ओर कुछ अखबार समूहों ने अपने प्रसार/प्रकाशन को बढ़ाया है तो वहीं कुछ समाचार पत्रों का दायरा सिमटा है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत की ज्यादा आबादी गांव में रहती है, फिर भी एक भी बड़ा अखबार समूह ग्रामीण क्षेत्रों को केन्द्र में रखकर प्रकाशन नहीं करता है। ग्रामीण क्षेत्र आज भी प्रिंट मीडिया से अछूते हैं। देश के कई गांवों में समाचार पत्र नहीं पहुंच पा रहे हैं। अंतिम कतार में खड़े व्यक्ति तक केवल आकाशवाणी की पहुंच बनी हुई है। भले ही प्रिंट मीडिया ने काफी तरक्की कर ली हो। संस्करण पर संस्करण प्रकाशित हो रहा हो। लेकिन, ये अखबार ग्रामीण जनता से कोसों दूर हैं। जो एक बड़ा सवाल है। देखा जाये तो जिले स्तर पर अखबरों के प्रकाशन के पीछे शहरी तबके को ही केन्द्र में रख कर प्रकाशन किया जा रहा है। अखबार की बिक्री ब्लॉक तक होती है। गांवों में अखबारों की पहुंच हो इस दिशा में शायद ही किसी मीडिया हाउस ने सार्थक प्रयास किया हो। सच तो यह है कि किसी एक गांव में समाचार पत्रों की प्रतियां १०० का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाती है। बिहार को ही ले, यहां ८४६३ पंचायत हैं और इस पंचायत के तहत लाखों गांव आते हैं। फिर भी अखबारों की पहुंच सभी पंचायतों तक नहीं है। नवादा जिले में १८७ पंचायत है। ब्लॉक की संख्या १४ है और गांव की संख्य १०९९ है। इनमें मात्र २०० गांवों में अखबार पहुंचने की बात कही जाती है। अखबारों का सर्कुलेशन प्रति गांव कम से कम १० और ज्यादा से ज्यादा ३० है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार के एक जिले के हजारों गांवों में मात्र २० प्रतिशत से भी कम गांव प्रिंट मीडिया के दायरे में हैं। समाचार पत्र समूह शहरों को केंद्र में रख कर खबरों का प्रकाशन करते हैं । क्योंकि, शहर एक बहुत बड़ा बाजार है और समाचार पत्रों में बाजार को देखते हुए शहर एवं ब्लॉक की खबरों को ही तरजीह दी जाती है। ब्लॉक स्तर पर अखबारों के लिए समाचार प्रेषित करने वाले पत्रकारों का मानना है कि ग्रामीण क्षेत्र में बाजार का अभाव है। यानी ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति सामने आती है। किसान फटे हाल हो और अनपढ़ हो तो, ऐसे में अखबार भला वह क्यों खरीदें ? हालांकि यह पूरी तरह से स्वीकार्य नहीं है क्योंकि अब गांवों में पढ़े लिखों की संख्या बढ़ी है। प्राथमिक विद्यालय सक्रिय है या फिर नौकरी पेशे से जुड़े लोग जब गांव जाते हैं तो उन्हें अखबार की तलब होती है। ऐसे में वे पास के ब्लॉक में आने वाले समाचार पत्र को मंगवाते हैं। कई सेवानिवृत्त लोग या फिर सामाजिक कार्यकत्ता चाहते है कि उनके गांव में समाचार पत्र आये। हालांकि इनकी संख्या काफी कम होती है फिर भी ऐसे कई गांव है जहां लोग अपनी पहल पर अखबार मंगवाते हैं। गांव से अछूते अखबारों के पीछे देखा जाये तो समाचार पत्र समूहों का रवैया भी एक कारण है। शहरों से छपने वाले समाचार पत्रों को गांव की खबरों से कोई लेना-देना नहीं रहता। अखबारों में गांव की खबरें नहीं के बराबर छपती है। जो भी खबर छपती है वह ब्लॉक में पदस्थापित प्रतिनिधियों से मिलती है वह भी ज्यदातर सरकारी मामलों पर केन्द्रीत रहती है। ब्लॉक का प्रतिनिधि ब्लॉक की खबरों को ही देने में दिलचस्पी रखता है ताकि ब्लॉक लेवल में अखबार बिक सकें। गांव की एकाध खबरें ही समाचार पत्रों को नसीब हो पाता है। जब तक कोई बड़ी घटना न घट जाए तब तक गांव की खबर अखबार की सुर्खियां नहीं बन पाती। गांव पूरी तरह से मीडिया के लिए अपेक्षित है। जबकि गांव में जन समस्या के साथ-साथ किसानों की बहुत सारी समस्याएं बनी रहती है। बिहार के पूर्णिया जिले के बनमंखी प्रखड के मसूरियामुसहरी गंव के प्रथमिक स्कूल में डेढ़ साल में कभी कभार शिक्षक पढाने आते थे। लेकिन, आकाशवाणी पर ९ दिसंबर २०१० इस संबंध में खबर आयी। खबर के आने के बाद प्रशासन हरकत में आयी और दूसरे दिन से स्कूल में शिक्षक आने लगे। बात साफ है मीडिया की नजर गांव पर पड़ेगी तो गांव खबर में आयेगा और वहाँ की जनसमस्याओं पर प्रशासन सक्रिय हो पायेगा। हालांकि कभी कभार मीडिया में गांव की खबरें आती है लेकिन वह कई दिनों के बाद। असके पीछे कारण यह है कि मीडिया से जुड़े लोग शहर और कस्बा, ब्लॉक तक ही सीमित है। अखबार वाले अपने प्रतिनिधियों को गांव में नहीं रखते। इसके पीछे आर्थिक कारण नहीं है क्योंकि ज्यादातर अखबरों के ब्लॉक प्रतिनिधि बिना किसी मेहनाता के रखे जाते है। अगर वे विज्ञापन लाते हैं तो उन्हें उसका कमीशन भर दिया जाता है। ग्रामीण भारत के नजरिए से देखा जाए तो कई गांवों में टीवी सेट नहीं हैं। असके पीछे बिजली का नहीं होना सबसे बड़ा कारण है। हालांकि ब्लॉक के करीब के गांवों में टीवी सेट ही नहीं केबल टीवी आ चुका है या फिर बैटरी पर ग्रामीण टीवी का मजा लेते हैं। जहां तक बिहार के गांवों का सवाल है, प्रत्येक घर में टीवी सेट उपलब्ध नहीं है। कमोबेश देश के अन्य राज्यों के गांवों में भी यही स्थिति बनी हुई है। बडा ही र्दुभाग्य की बात है कि संचार क्रांति के दौर में गांवों में शहरों की तरह समाचार पत्र/ टीवी सेट तो नहीं पहुंच है। लेकिन मोबाइल फोन ने ग्रामीण क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया है। गांव का मुखिया हो या मनरेगा में काम करने वाला मजदूर आज मोबाइल के दायरे में आ चुका है। एनआरएस-२००२ के आंकडे से पता चलता है कि बिहार के गांवों में १८ घरों में से केवल एक घर में टी.वी सेट था। पंजाब में पांच से तीन था। वहीं उत्तर प्रदेश के गांवों में ८० प्रतिशत घरों में टी.वी. नहीं था। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जो मीडिया सिर्फ देश की राजधानी तक ही सीमित हुआ करता था आज वह राजपथ से होते हुए कस्बा और गांव तक पहुंच चुका है। थोड़ी देर के लिए प्रिंट मीडिया को दरकिनार कर दें तो पाएंगे कि रेडियो पत्रकारिता की पहुंच गांवों में ज्यादा है। प्रयास प्रिन्ट मीडिया का भी होना चाहिए इस दिशा



शरीर की भाषा
 भोपाल (आईएएनएस)। हममें से हर कोई अपनी भावना या विचार का इजहार करने के लिए किसी न किसी तरीके का इस्तेमाल करता है।
यह आवश्यक नहीं है कि संवाद कायम करने के लिए हमेशा जुबान से बोले जाने वाले शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाए। कभी कभी शरीर की भाषा जुबान से अधिक स्पष्ट और ताकतवर होती है।
कई बार वक्ता अपनी बातों के साथ कई तरह की भाव-भंगिमाओं का इस्तेमाल करते हैं। यह वक्ता द्वारा बोली जाने वाली बातों को सकारात्मक या नकारात्मक तरीके से मदद करता है। इतना ही नहीं यह वक्ता के बारे में उन बातों को भी बताता है, जो वक्ता कहना नहीं चाहता है। मसलन उसकी सोच और विचार के बारे में जाने-अनजाने कई राज उगल देती हैं हमारी भाव-भंगिमाएं।
कई बार हम वाक्य को अधूरा छोड़ कर उसे भाव भंगिमाओं या शरीर की भाषा के माध्यम से पूरा करते हैं, क्योंकि कई बार कुछ बातें बोलने में असुविधाजनक होती है। कई बार हम जुबान से बोले जाने वाले एक साधारण से वाक्य या शब्द को शारीरिक हाव-भाव से एक विशेष अर्थ भी देते हैं।
इसलिए शारीरिक हाव-भाव जैसे चेहरे की भंगिमा, हाथों का इशारा, देखने का तरीका या शारीरिक मुद्रा, आदि का संवाद में बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। याद कीजिए कई बार हम सिर्फ मुस्कराकर, ऊंगली दिखाकर, हाथों से इशारा कर कितना कुछ कह जाते हैं।
हम अपनी मुद्राओं के माध्यम से हालांकि कुछ न कुछ तो कहते ही रहते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि हमारी मुद्राओं को देखने वाला व्यक्ति भी हमारी मुद्राओं के वही अर्थ समझे, जो हम वाकई कहना चाहते हैं। क्योंकि एक ही मुद्रा का अर्थ अलग-अलग समाज और संस्कृति में अलग लगाया जा सकता है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारी मुद्राएं हमारे बारे में इतना कुछ कहती हैं कि कई बार हम यह महसूस भी नहीं कर सकते हैं। एक ही शब्द अलग-अलग भंगिमा के साथ कहे जाने पर कभी गंभीर तो कभी अपमानजनक तौर पर ली जा सकती है।
संप्रेषण विज्ञान पर काम करने वाले शोधार्थियों का मानना है कि हम जो कुछ भी कहते हैं उसके साथ यदि सही शारीरिक भाषा को भी जोड़ दिया जाए, तो हम उसके अर्थ का अधिक-से-अधिक सटीक संप्रेषण करने में सफल हो सकते हैं।
यहां कुछ शारीरिक भंगिमाओं और मुद्राओं और उनके अर्थ की एक सूची दी जा रही है, लेकिन अलग-अलग परिस्थितियों में इसके अर्थ बदल भी सकते हैं।
मुद्राएं (अर्थ)
आगे की ओर पसरा हुआ हाथ (याचना करना)
मुखाकृति बनाना (धीरज की कमी या अधीर)
कंधे घुमाना फिराना या उचकाना (विदा होना, अनभिज्ञता जाहिर करना)
मेज पर उंगलियों से बजाना (बेचैनी)
मुट्ठी भींचना और थरथराना (गुस्सा)
आगे की ओर उठी और सामने दिखती हथेली (रकिए और इंतजार कीजिए)
अंगूठा ऊपर उठा हुआ (सफलता)
अंगूठा गिरा हुआ (नुकसान)
मुट्ठी बंद करना (डर)
आंख मींचना (ऊबना)
हाथ से किसी एक दिशा की ओर इशारा करना (जाने के लिए कहना)
तेज ताली बजाना (स्वीकृति)
धीरे से ताली बजाना (अस्वीकार, नापसंदगी)
आज के जमाने में जब हर आदमी के पास समय बहुत कम होता है, ये मुद्राएं संवाद में बहुत काम आ सकती हैं और संप्रेषण में बहुत कारगर हो सकती हैं।
भाषण, प्रस्तुति आदि में इन मुद्राओं का इस्तेमाल कर हम किसी खास विचार, भाव का आसानी से संप्रेषण कर सकते हैं या आसानी से अपने पक्ष में माहौल बना सकते हैं।

बैतूल घरेलू हिंसा के सबसे ज्यादा मामले बैतूल से द्वश्च

स्नह्म्द्गद्ग हृद्ग2ह्यद्यद्गह्लह्लद्गह्म् स्द्बद्दठ्ठ ह्वश्चबैतूल घरेलू हिंसा के सबसे ज्यादा मामले बैतूल से द्वश्चङ्कशह्लद्ग ह्लद्धद्बह्य ड्डह्म्ह्लद्बष्द्यद्ग (०) (०).
भोपाल। महिलाओं संबंधी अपराधों के मामले में गरीब और भुखमरी से बेहाल राज्य मध्य प्रदेश, आपराधिक राज्य उत्तर प्रदेश से किसी भी मामले में पीछे नहीं है। लेकिन घरेलू हिंसा के मामले में मध्य प्रदेश का बैतूल शहर सबसे आगे पाया गया है। क्योंकि राज्य में घरेलू हिंसा के सबसे ज्यादा मामले बैतूल में दर्ज किए गए हैं।
यह संख्या पूरे प्रदेश में दर्ज मामलों के मुकाबले लगभग ४० फीसदी है। प्रदेश में घरेलू हिंसा की कुल १० हजार शिकायतें दर्ज की गई हैं। प्रदेश में सबसे ज्यादा घरेलू हिंसा की शिकायतें बैतूल जिले में ४ हजार से ऊपर दर्ज की गई हैं। सरकार के मुताबिक इनमें से २ हजार से ऊपर मामलों का निराकरण किया गया है।
सरकार के मुताबिक घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं को सहायता मुहैया कराने के लिए उषा किरण योजना के तहत काम किया जा रहा है। इस योजना के तहत अब तक १० हजार ९४४ शिकायतें दर्ज कराई गई हैं। इनमें से ज्यादातर मामलों को परामर्श और कानूनी
सलाहों के जरिए निबटाया गया है। यह योजना महिला संरक्षण अधिनियम २००५ (घरेलू हिंसा के विरुद्ध संरक्षण व सहायता का अधिकार) पर आधारित है

शंकरदयाल सिंह----(यह कहानी नहीं है)
सारांश: प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश संभव है कहानी-संग्रह के इस नाम (यह कहानी नहीं है) से तथा कहानीकार के रूप में शंकरदयाल सिंह को अपने सामने पाकर आप चौंके, मानो यह कोई जीवित सपना हो। विश्वास कीजिए, इन कहानियों के बीच से गुजरते हुए आपको सहज एहसास होगा कि किसी भी कहानी का बिंब परीलोक की गाथा नहीं; बल्कि वह यथार्थ है जो पानी का बुलबुला नहीं होता; बरौनियों और पलकों के आसपास का वह अश्रुकण है जिसमें अनुभूति की सचाई तथा दर्द की गहराई दोनों होती हैं। च्यह कहानी नहीं हैज् की कहानियों का फासला तथा परिवेश गत २५-३० वर्षों का वृत्त है, जिसे पाठकों ने ज्ञानोदय, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कहानी,, कहानीकार, ज्योत्सना, मुक्तकंठ आदि के पन्नों पर सुहागवती मछलियों के समान थिरकते या फिर मुंशी और मादल के समान रुदन-हास करते देखा-सुना होगा। कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ नेपथ्य की आवाज़ नहीं हैं, समय-शिल्प की यथार्थवादी पकड़ है। प्रकाशक सम्पादकीय भारतीय राजनीति-क्षेत्र और हिन्दी साहित्य जगत् दोनों ही के लिए शंकरदयाल सिंह जी का नाम कोई नया नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में जहाँ उनका व्यक्तित्व एक सुलझे हुए राजनेता के रूप में उभरकर सामने आया है वहीं हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उनकी लेखिनी का जादू पाठकों को वर्षों से आकृष्ट करता रहा है। जहाँ एक ओर उन्होंने अपनी राजनीतिक-यात्रा में अनेक पड़ाव तथा मंजिलें तय की हैं वहीं दूसरी ओर सर्जनात्मक साहित्य-लेखन में अनेक कीर्ति-स्तंभ स्थापित किए हैं। विषमताओं और कुटिलताओं से प्रदूषित आज के इस राजनीतिक वातावरण में शंकरदयाल जी ने गांधीवादी आदर्शों की चादर ओढ़कर जो छवि स्थापित की है, वह आगे आनेवाले राजनेताओं के लिए च्आदर्शज् बनेगी और उनका दिशा-निर्देश करेगी। दूसरी ओर सर्जनात्मक साहित्य के क्षेत्र में, विशेषकर च्संस्मरणज् और च्यात्रा-वृत्तांतज् लेखन की परंपरा में, अपनी लेखिनी के माध्यम से हिन्दी साहित्य जगत् को उन्होंने जो अमूल्य निधि अर्पित की है, वह आगे आने वाले साहित्य लेखकों के लिए प्रेरणादायक साबित होगी। गत तीस-पैंतीस वर्षों से शंकरदयालजी साहित्य-लेखन से जुड़े रहे हैं और आज भी उनकी लेखन-धारा वेगवती प्रवाहित हो रही है। साहित्य की शायद कोई विधा हो जिस पर उन्होंने अपनी लेखिनी नहीं चलाई। कहानी, निबंध, आलोचना संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत आदि के क्षेत्र, विशेष रूप से, उनके प्रिय लेखन-क्षेत्र रहे हैं ! उन्होंने अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया है और वर्षों तक च्पारिजात प्रकाशन, पटनाज् से च्मुक्त कंठज् नामक पत्रिका का बड़ी सफलता के साथ संपादन भी करते रहे हैं। च्मुक्त कंठज् के माध्यम से अनेक प्रतिभाशाली नए लेखकों को साहित्यिक-मंच पर ला खड़ा करने में शंकरदयालजी की विशिष्ट भूमिका रही है। अलग-अलग साहित्यिक विधाओं से जुड़ा शंकरदयालजी का लेखन-कार्य देश की लगभग समस्त प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं तथा उनकी अपनी प्रकाशित पुस्तकों के माध्यम से पाठकों एवं साहित्यक मर्मज्ञों के समझ समय-समय पर बराबर आता रहा है। उनकी कुछ पुस्तकें ऐसी हैं जिनमें किसी एक विधा से संबंधित लेख हैं। अब, हमारी यह योजना है कि शंकरदयालजी जी अलग-अलग विधाओं से संबंधित समस्त प्रकाशित अथवा अप्रकाशित रचनाओं को अलग-अलग पुस्तक-खंड़ों में प्रकाशित किया जाए। इस योजना के अन्तर्गत हम उनकी कहानियाँ, निबंध संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत तथा डायरी से संबंधित लेखन-साहित्य को पाँच अलग-अलग खंडों में पाठकों के समझ प्रस्तुत करने जा रहे हैं। प्रस्तुत है च्यह कहानी नहीं हैज् हमारी उसी योजना का प्रथम चरण है जिसमें शंकरदयालजी की अब तक प्रकाशित तथा अप्रकाशित समस्त कहानियों को स्थान दिया गया है। जहां तक कहानी-लेखन का प्रश्न है, शंकरदयालजी की अधिकांश कहानियाँ छठे दशक के उत्तरार्द्ध तथा सातवें दशक के मध्य लिखी गई हैं तथा इनका प्रकाशन १९७४ से १९८५ के अंतर्गत अलग-अलग कहानी-संग्रहों के माध्यम से हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम खंड में इन्हीं कहानियों को रखा गया है। शंकरदयालजी ने इन कहानियों के अतिरिक्त अनेक च्लघु कहानियोंज् की भी रचना की है। वस्तुत: ये लघु-कहानियाँ लेखक के च्लघु-भावबोधज् हैं जो पाठक के मानस-पटल पर बड़ी ही द्रुत गति से अपने प्रभाव अंकित करने में पूर्णत: समर्थ हैं। प्रस्तुत संकलन के द्वितीय खंड में हमने इन्हीं लघु कथाओं को स्थान दिया है। सर्जनात्मक साहित्य-लेखन की जिस परंपरा का वहन शंकरदयालजी की लेखिनी ने किया है, कहानी-लेखन भी उसी परंपरा का एक अंग है। परंतु, यही एक विधा ऐसी है जिस पर पिछले दस-पंद्रह सालों से लेखक ने लिखना लगभग बंद-सा ही होकर कर दिया है। लेकिन यह इस बात का परिचायक नहीं है कि लेखक को कहानी लिखना प्रिय नहीं है अथवा कहानी अब लेखक के मन में रूपायित नहीं होती। शंकरदयालजी एक संवेदनशील व्यक्तित्व हैं। उनके मानसिक धरातल पर तो ये कहानियाँ अब भी रूप ग्रहण करती हैं परंतु उनकी मानसिक अभिव्यक्ति लिखित अभिव्यक्ति के रूप में साकार नहीं हो पाती। उसके दो प्रमुख कारण हैं-एक तो व्यस्तताओं से घिरा उनका जीवन-चक्र तथा दूसरे, इन दिनों उनकी रुचि संस्मरण तथा यात्रा-वृत्तांत-लेखन के क्रम में आया यह व्यवधान जल्दी ही समाप्त होगा और वे अपनी नई रचनाओं के साथ पाठकों के समक्ष पुन: उपस्थित होंगे। प्रस्तुत कहानी-संग्रह च्यह कहानी नहीं हैज् का संपादन कार्य करते समय हम लोगों को अनेक बार शंकरदयालजी से परामर्श लेने की आवश्यकता पड़ी है और आगामी खंडों के प्रकाशन में भी पड़ेगी। परन्तु कठिनाई यह है कि उनके व्यस्त समय में से कुछ क्षण पा लेना कोई आसान कार्य नहीं है। फिर भी, उनकी इच्छा-अनिच्छा के बावजूद हम लोग उनके बहुमूल्य समय में से कुछ समय चुरा पाने में सफल हो ही गए हैं। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि शंकरदयालजी का च्सान्निध्यज् सदा प्रेरणा और स्फूर्तिदायक होता है। हम लोगों को उनके सान्निध्य का जो सुख मिला है, उसके लिए हम लोग उनके आभारी हैं। हमें पूर्ण आशा है कि हमारी उक्त योजना से तथा हमारे इस प्रयास से पाठकों को तो लाभ होगा ही, साहित्यकारों और साहित्य-समीक्षकों को भी एक ही संग्रह में लेखक की समस्त कहानियाँ आ जाने से सुविधा होगी। इसके अतिरिक्त आज देश के कई विश्वविद्यालयों में शंकरदयालजी के साहित्य पर जो शोध-छात्र शोधकार्य कर रहे हैं, निश्चित ही वे लोग इस योजना से लाभान्वित हो सकेंगे। नई दिल्ली -रवि प्रकाश गुप्त -मंजु गुप्ता कुछ मैं भी कह दूँ कहानी का दर्द और कहानी का सौन्दर्य अपना होता है। कहानी के बारे में कहानीकार का कहना कुछ भी मायने नहीं रखता, क्योंकि इस संबंध में जो भी कहना हो, वह कहानी स्वयं अपने आप कहेगी। इतना स्पष्ट है कि किसी भी कहानी में किसी-न-किसी रूप में कहानीकार आलिप्त रहता है। मैंने लेखन की शुरुआत कहानी से ही की थी। १९५३ या ५४ में आयोजित एक कथा-प्रतियोगिता में मेरी कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला था, जिसे उस समय सराहना मिली तथा च्आजज् में प्रकाशित हुई। उसकी प्रेरणा मेरे लेखन पर पड़ी। बाद के दिनों में मेरी धारणा बदल गई और मैंने सोचा कि जब सामयिक संदर्भों में ही लेखन की इतनी सारी बातें तैर रही हैं, तब फिर कल्पना का सहारा क्यों लिया जाए। मेरी इस धारणा के पीछे यह सचाई थी कि सबसे अधिक पाठक समाचार-पत्रों के हैं, जो सामयिक संदर्भों में रुचि रखते हैं अथवा उनसे जूझना चाहते हैं। अखबार आज के जीवन की अनिवार्यता हो गई है, जहाँ शीर्षकों के सहारे आज का आदमी दिन की शुरुआत करता है तथा धारणाओं का संसार गढ़ता है। अत: कहानियों की जगह, सचाइयों से टकराने लगा। कभी संस्मरणों के द्वारा, कभी यात्रा-प्रसंगों के माध्यम से तथा कभी सामयिक संदर्भों को लेकर। जहाँ तक मुझे याद है, १९८४ के बाद मैंने कोई कहानी नहीं लिखी, लेकिन कहानी का दर्द सदा मेरे अंदर पलता रहा है। आज मुझे प्राय: इलहाम होता है कि राजनीतिक कहानियाँ लिखूँ, क्योंकि सामाजिक, प्रेमपूर्ण और ऐतिहासिक कहानियों की अपेक्षा बहुत बड़े पाठक-वर्ग का रुझान इस ओर है। कहानी अपनी यात्रा में अब काफी आगे निकल चुकी है। कहानी, अकहानी, यथार्थवादी कहानी, आंचलिक कहानी, ग्रामीण कहानी, प्रेम कहानी आदि कई विधाओं में वह विभक्त है। लेकिन इस सबके बावजूद कहानी केवल कहानी होती है, जिसके साथ पाठक का सह भाग भी होता है। हालाँकि आलोचकों-समीक्षकों ने उसे अपनी-अपनी धारणाओं में उलझाने की कोशिश की है, जिन पर कुछ वादों का भी मुलम्मा है : खुशी की बात है कि आज सौ-दो सौ लघु-पत्रिकाएँ ऐसी निकल रही हैं जिनमें कई उल्लेखनीय कहानियाँ देखने को मिल जाती हैं। दूसरी ओर बड़ी पत्रिकाओं में अधिकतर बड़े नामों का झरोखा देखने को मिलता है। इस कहानी का शीर्षक च्उसने कहा थाज् या च्पंच परमेश्वरज् या च्गदलज् या च्धरती अब भी घूम रही हैज् नहीं हो सकता और लेखक का नाम गुलेरी, प्रेमचन्द्र, रांगेय राघव या विष्णु प्रभाकर नहीं होता। लेकिन हर कहानी की तासीर अपनी होती है और उसी प्रकार उस कहानीकार का नाम भी अपना होता है। कहानी की सही पहचान शीर्षक या लेखक के नाम पर न होकर उसकी गहरी छाप पाठक पर क्या पड़ी, वह है। दुनिया में सबसे अधिक कविताएँ लिखी गईं, कहानियाँ पढ़ी गई और उपन्यासों को मान्यता मिली। जाहिर है कि आज जब हर आदमी की जिंदगी भागते पहिए के समान है, वह कहानियों के सहारे ही अपनी पाठकीय क्षुधा की तृप्ति कर सकता है। मेरी इन बिखरी कहानियों का परिवेश काफी व्यापक है तथा क्रमबद्धता की कमी के कारण भाषा-शैली, कथासूत्र सबकी बेतरतीबी है। इनका एक जिल्द में आना किसी के लेखन की ऐतिहासिक पूँजी हो सकती है। ये कहानियाँ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के अंदर प्रकाशित हुई हैं। अनेक ऐसी कहानियाँ जो इस संग्रह में होती तो मेरे मन को संतोष होता, लेकिन खोजने-ढूँढने के बाद भी कई कहानियाँ नहीं मिलीं। जो मिल गई और संग्रहीत हो गईं, उनके लिए अप्रत्यक्ष रूप से अपने उन पाठकों के प्रति आभारी हूँ, जिनके प्रेम तथा लगाव ने मुझे लेखन की निरतंरता प्रदान की है। सबके बावजूद यह संग्रह डॉ. रवि प्रकाश गुप्त और डॉ. मंजु गुप्ता के परिश्रम और निष्ठा का फल है। रविजी ने केवल संपादन की औपचारिकता का निर्वाह ही नहीं किया, वरन् निष्ठा का परिचय भी दिया। अस्थायी पता: १५, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड, नई दिल्ली-११०००१ शंकरदयाल सिंह कामता-सदन, बोरिंग रोड पटना-८०


शंकरदयालजी एक राजनेता
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंशदो शब्दभारतीय राजनीति और हिंदी साहित्य जगत् के फलक पर यो तो अनेक राजनीतिज्ञ और साहित्यकार उदित हुए और अस्त हो गए, परंतु इन दोनों ही क्षेत्रों में अपना अस्तित्व बनाए रखने वाला एक नाम है-श्री शंकरदयाल सिंह। जहाँ शंकरदयालजी ने एक लंबे अंतराल तक राजनीतिक इतिहास को जिया है वहीं साहित्यकार के क्षेत्र में विशेष रूप से यात्रा-वृतान्त और संस्मरण-लेखन में, कीर्तिमान, स्थापित किया है। यही कारण है कि शंकरदयाल सिंह आज एक ऐसा नाम है जिससे शायद ही कोई अपरिचित हो।
शंकरदयालजी एक राजनेता हैं, संसद-सदस्य है, इसलिए राजनीतिक जीवन की व्यवस्थाएँ बहुत अधिक हैं। आज उनके पास सब कुछ है-यश है, प्रतिष्ठा है, सम्मान है; और यदि नहीं है तो केवल समय नहीं है। निरंतर भाग-दौड़ की यायावरी जिन्दगी जीनेवाले शंकरदयालजी के जीवन का एक-एक क्षण कितना व्यस्त है, इसे उनके सम्पर्क में आए बिना समझा नहीं जा सकता। परंतु लेखन साहित्य के प्रति उनकी रुचि और निष्ठा दोनों ही श्लाघ्य हैं। माँ सरस्वती की कृपा है कि आज लगभग तीस-पैंतीस पुस्तकें उनके नाम से प्रकाशित हैं और लगभग ढाई-तीन सौ लेख देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुँचते रहे हैं।
संस्मरण और यात्रा-वृतान्त ऐसी विधाएँ हैं जिनको वहीं व्यक्ति प्रभावी ढंग से लिख सकता है जो संवेदनशील होने के साथ-साथ अपने परिवेश की छोटी-बड़ी सभी वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं आदि के प्रति सचेत और जागरूक हो। शंकरदयालजी में ये गुण जन्मजात हैं।
यों तो शंकरदयाल जी ने सभी प्रकार के व्यक्तियों पर संस्मरण लिखे हैं, परंतु राजनीतिक एवं साहित्यिक हस्तियों पर लिखे उनके संस्मरणों का तो जवाब ही नहीं है। राजनीतिक हस्तियों पर लिखे उनके संस्मरण पाठक के समक्ष एक इतिहास उजागर कर देते हैं। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध पुस्तक च्इमरजेंसीः क्या सच, क्या झूठ एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें तत्कालीन बड़े-बड़े राजनेताओं के असली चेहरे सामने आ जाते है। शंकरदयालजी के राजनीतिक व्यक्तियों पर लिखे संस्मरण उन व्यक्तियों के चरित्र का सही आकलन प्रस्तुत करते है।
शंकरदयालजी के अलग-अलग साहित्यिक विधाओं वाले लेखन को अलग-अलग खंडों में प्रकाशित करने की योजना हम लेकर चले है। इस योजना के अंतर्गत च्कहानी खंडज् तथा च्यात्रावृत्तांत खंडज् भी साथ-साथ प्रकाशित किए जा रहे हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनके अब तक के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरण संकलित किए जा रहे हैं।
हमें आशा है कि पाठक तथा वे सभी शोधार्थी जो शंकरदयाल के साहित्य पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध कार्य कर रहे हैं, इन संग्रहों का लाभ उठा सकेंगे।
रवि प्रकाश गुप्त
मंजू गुप्ता
कुछ कहने के बहाने
संस्मरण मात्र कोई विधा नहीं है। मेरी समझ में वह विधा से बढ़कर अनुभूति और अनुभूति से परे एक आत्मिक संवाद है। ऐसे निबन्ध दुनिया की हर भाषा में बहुतायत में लिखे गए हैं, लिखे जा रहे हैं और भविष्य में भी लिखे जाते रहेंगे।
हिंदी में तथा भारतीय भाषाओं में भी संस्मरणात्मक लेखों की कमी नहीं है, जिसमें अधिकाँश जन्म-दिवसों, अभिनंदन-ग्रन्थों तथा मरणोपरांत लिखे गए हैं। साक्षात्कार के बहाने भी संस्मरण आकार ग्रहण करते रहे हैं।
जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने इस तरह का पहला संवाद या संस्मरण १९५४ में च्आजज् के लिए लिखा था-काशी की पाँच विभूतियों से भेंटज्। इस भेंट में शामिल थे-भारतरत्न डॉ. भगवान दास, महान, शिक्षाविद डॉ. इकबाल नारायण गुर्टू, सुप्रसिद्ध कला साधक राय कृष्णदास, समाजवाद के अग्रदूत अच्युत पटवर्द्धन तथा विख्यात संगीतज्ञ पंडित ओंकारनाथ ठाकुर। बाद के दिनों में यह सिलसिला जारी रहा।
कभी विश्वविख्यात विचारक-चिंतक जे. कृष्णमूर्ति पर लिखा, तो कभी आचार्य हजारी प्रसाद द्विदेदी पर। अब जो यह संस्मरणों का मेरा विशाल गुच्छ आपके सामने है निश्चय ही तीस-बत्तीस वर्षों के कालक्रम को अपने में समेटे हुए है। किसी को देखा, किसी को सुना, किसी से मिला, किसी को पढ़ा और किसी को जानने के लिए उसमें डूबा तो स्वतः ही आकारबद्ध कर दिया। इसमें न तो मेरी ओर से कोई खयाल उभरा कि कौन बड़ा है और कौन छोटा ? और किसके साथ वर्षों रहा तथा किसके साथ मात्र कुछ लमहे कटे। कौन साहित्यकार है और कौन सांस्कृतिक तथा कौन राजनीतिक, इसकी भी पहचान मैं नहीं रख सका। जो भी दायरे अथवा परिवेश में आए, उन्हें साहित्यिक अनुभूतियों के साए में कैद करने की मैंने कोशिश की।
संस्मरण लिखने का कार्य भी बड़ा दुरुह है। जिनके आप करीब है उनकी बुराइयों को नजर अन्दाज कर केवल उनकी अच्छाइयां ही लिखनी पड़ती हैं। फिर अधिकाश संस्मरण रस्म अदायदगी से हो जाते हैं। अपने अंदर भी यह दोष मैं मानता हूँ।
संग-साथ चलने का सुख अपना होता है। भावी पीढ़ी अब अपने अतीत में झाँकेगी और कुछ लोगों को पहचानना चाहेगी तो उसे किसी का सहारा लेना पड़ेगा। संभव है मेरी ये रचनाएं इस रूप में ही कहीं काम की साबित हों।
बच्चनजी ने अपने बारे में लिखा है-
च्च्जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं मैं बैठ, कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, जाना, उसमें क्या बुरा-भला !ज्ज्
मैं स्वयं अपने आपको इसी चौखट में जकड़कर सोचा करता हूँ कि क्या किया ? क्या पाया ? क्या छोड़ जाऊँ ? संतोष और सुख है तो यही कि अपनी आँखों राष्ट्रपिता गांधी से लेकर राजेन्द्र बाबू तक को देखा। इंदिरा गांधी से लेकर डॉ. शंकरदयाल शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी तक का स्नेह-सद्भाव मिला। यदि इन सबको किसी-न-किसी रूप में आकार न देता तो इतिहास के प्रति एक अन्याय होता।
जीवन कहा कम, अनकहा अधिक रह जाता है। हम अपनों को सत्य बनाते-बनाते सत्य को ही सपना बना देते हैं। जीवन की भाग-दौड़ में कितने आते हैं और कितने चले जाते हैं, न तो उन्हें आँक पाते हैं और न उन्हें टाँक पाते हैं। हममें यह शक्ति होती है कि हर मिलनेवाले का एक चित्र कूची और रंगों के सहारे हम बनाकर रख लेते तो वह हमारे लिए एक अक्षय कोष होता।
मैंने सैकड़ों की तादात में संस्मरण लिखे लेकिन कभी भी किसी चौखटे में उन्हें जकड़ने के लिहाज से नहीं, मुक्तभाव और उन्मुक्त परिवेश से लिखा। साहित्य की सृजनात्मकता और व्यक्तित्व, दोनों मेरे सामने रहे।
लगभग छः पुस्तकों और पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी सामग्रियों को माँजना, सँवारना और क्रमबद्धता प्रदान करना टेढ़ी खीर थी। मेरे दो स्नेही मित्रों ने अधिकारपूर्णक अपने हाथों में यह कार्य लिया–डॉ. रवि गुप्त तथा डॉ. मंजु गुप्त ने। उनके स्वाध्याय और निष्ठा की छाप यह संग्रह है, अन्यथा सामग्रियाँ इधर-उधर बिखर जातीं और एक जिल्द में नहीं आ पातीं। क्या इन दोनों व्यक्तियों के प्रति शब्दों के सहारे ऋण भार कम कर पाऊँगा ?
मेरी पत्नी कानन और पुत्र रंजन मेरे ऐसे कार्यों में सहायक का पार्ट अदा करते हैं। संजय ने सामग्रियों को बटोरने में जो कर्मठता दिखाई, उसका मैं लोहा मानता हूँ। ओम प्रकाश ठाकुर ने टंकण की अपनी क्षमता का विकास इन रचनाओं के सहारे किया है तथा वीरेन्द्र और सुदामा मिश्र भाग-दौड़ में कभी पीछे नहीं रहे।
आदमी में कमजोरी और मजबूती दोनों होती हैं कि किसी वस्तु को आकार देते हुए अपनों को याद करता है। मेरी मजबूती और लाचारी दोनों हैं कि किनका उल्लेख करूँ और किन्हें छोड़ूँ। जिनका नामोल्लेख न किया उनका महत्त्व उनसे कम नहीं है।
शंकरदयाल सिंह
कामना सदन,
बोरिंग रोड, पटना-८०० ००१
कुछ अमिट क्षण
च्च्कभी-कभी हम किसी से मिलकर भी नहीं मिल पाते लेकिन कभी-कभी किसी को देखकर ऐसा लगता है कि इनसे तो हम युग-युग से परिचय रहे हैं। कोई जनम-जनम का रिश्ता हैं,ज्ज् श्री रामनारायण उपाध्यायजी के ये शब्द बार-बार कानों से टकराते हैं, जो संसद सदस्य, लेखक एवं पत्रकार श्री शंकरदयालजी के लिए च्मैंने इन्हें जानाज् की भूमिका में हार्दिक उदगार के रूप में व्यक्त किए गए हैं। ये शब्द न केवल उपाध्याय जी के हो सकते है वरन शंकरदयाल जी से मिलने के बाद हर व्यक्ति की यही धारणा बनती है कि यह स्नेही व्यक्तित्व कितना परिचित-सा है। कितना पहचाना हुआ-सा !! यही कारण है कि इनका परिचय एंव नाम, विविधमुखी व्यक्तित्व एवं साहित्यिक प्रतिभा आज हिंदी जगत के लिए भी अपरिचित नहीं है; और ये एक मँजे हुए साहित्यकार के रूप में ही हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि शंकरदयालजी एक ऐसे लेखक हैं जो नीड़-निर्माण के साथ ही उनको सहेजने के प्रति भी सावधान रहते है।ज् स्मृतियों का एक-एक पल सहेजकर रखते हैं, फिर उन्हें अत्यंत प्रभानी ढंग से शब्दबद्ध कर अभिव्यक्त प्रदान करते हैं।